google.com, pub-8281854657657481, DIRECT, f08c47fec0942fa0 Osho Philosophy Hindi: February 2019

Thursday

ओशो का वह प्रवचन, जि‍सपर ति‍लमि‍ला उठी थी अमेरि‍की सरकार और दे दि‍या जहर

ओशो का वह प्रवचन, जि‍सपर ति‍लमि‍ला उठी थी अमेरि‍की सरकार और दे दि‍या जहर 😞




ओशो का वह प्रवचन, जिससे ईसायत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्‍ड रीगन सरकार ने उन्‍हें हाथ-पैर में बेडि़यां डालकर गिरफ्तार किया और फिर मरने के लिए थेलियम नामक धीमा जहर दे दिया था।

इतना ही नहीं, वहां बसे रजनीशपुरम को तबाह कर दिया गया था और पूरी दुनिया को यह निर्देश भी दे दिया था कि न तो ओशो को कोई देश आश्रय देगा और न ही उनके विमान को ही लैंडिंग की इजाजत दी जाएगी। ओशो से प्रवचनों की वह श्रृंखला आज भी मार्केट से गायब हैं। पढिए वह चौंकाने वाला सच

ओशो:

जब भी कोई सत्‍य के लिए प्‍यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्‍सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। 

यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्‍लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्‍य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्‍लेख नहीं है।

 और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्‍योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्‍हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइाबिल में उन सालों को क्‍यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्‍हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्‍मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्‍मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्‍होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्‍द भी नहीं सुने थे। फिर क्‍यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? 

यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्‍यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्‍योंकि इस व्‍यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्‍पना की जा सकती है।

पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्‍म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्‍पष्‍ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। 

और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्‍हें समझ आएगा कि क्‍यों वे बारा-बार कहते हैं- ' अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्‍थर से देने को तैयार रहना।

 लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्‍हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्‍होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्‍यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्‍क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था।

जीसस कहते हैं कि अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था। कौन हैं ये पुराने पैगंबर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- कि ईश्‍वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्‍वर के मुंह से ये शब्‍द भी कहलवा दिए हैं कि मैं कोई सज्‍जन पुरुष नहीं हूं, तुम्‍हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्‍यालु हूं,

 और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं। पुराने टेस्‍टामेंट में ईश्‍वर के ये वचन हैं। और ईसा मसीह कहते हैं, मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्‍मा प्रेम है। यह ख्‍याल उन्‍हें कहां से आया कि परमात्‍मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्‍मा को प्रेम कहने का कोई और उल्‍लेख नहीं है। 

उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्‍त, भारत, लद्दाख और तिब्‍बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्‍कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं।

 तुम्‍हें जानकर आश्‍चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्‍यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्‍य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्‍या हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्‍योंकि उनकी मृत्‍यु का तो कोई उल्‍लेख है ही नहीं !

सच्‍चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्‍तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्‍योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं।

 चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्‍वस्‍थ है तो 60 घंटे से भी ज्‍यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्‍लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्‍यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्‍य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्‍या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। 

पोंटियस के दस्‍तखत के बगैर यह हत्‍या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए।

 जीसस वहां एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्‍मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा,

 मगर उसके स्‍वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्‍यक्ति की हत्‍या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो पोंटियस ने जीसस के शिष्‍यों के साथ मिलकर यह व्‍यवस्‍था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्‍त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, 

फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्‍थगित किया जाता रहा। ब्‍यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्‍त के पहले ही उन्‍हें जीवित उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्‍योंकि शरीर से रक्‍तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी।

 पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्‍हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्‍यगण उन्‍हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।

जीसस ने भारत में आना क्‍यों पसंद किया? क्‍योंकि युवावास्‍था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्‍होंने अध्‍यात्‍म और ब्रह्म का परम स्‍वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्‍वस्‍थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए।

 कश्‍मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्‍मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है, जोशुआ- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। जीसस जोशुआ का ग्रीक रुपांतरण है। 

जोशुआ यहां आए- समय, तारीख वगैरह सब दी है। एक महान सदगुरू, जो स्‍वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्‍यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहांरहे। इसी वजह से वह स्‍थान भेड़ों के चरवाहे का गांव कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-पहलगाम, उसका काश्‍मीरी में वही अर्थ है- गड़रिए का गांव


जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्‍य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्‍यात्मिक प्रगति कर सकें।

 और उन्‍होंने मरना भी यहीं चाहा, क्‍योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)मरना भी अत्‍यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्‍यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्‍तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्‍यागी
थी | इससे भी अधिक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्‍यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्‍थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्‍थान स्‍वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्‍यों कश्‍मीर में आकर मृत्‍यु में प्रवेश किया?

मूसा ईश्‍वर के देश इजराइल की खोज में यहूदियों को इजिप्‍त के बाहर ले गए थे। उन्‍हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्‍होंने घोषणा की कि, यही वह जमीन है, परमात्‍मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्‍हालो!

मूसा ने जब इजिप्‍त से यात्रा प्रारंभ की थी तब की पीढ़ी लगभग समाप्‍त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्‍चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्‍होंने युवा लोगों शासन और व्‍यवस्‍था का कार्यभारा सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

 यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्‍त्रों में भी, उनकी मृत्‍यु के संबंध में , उनका क्‍या हुआ इस बारे में कोई उल्‍लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्‍मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत क्‍यों आना चाहते थे ? केवल मृत्‍यु के लिए ? हां, कई रहस्‍यों में से एक रहस्‍य यह भी है कि यदि तुम्‍हारी मृत्‍यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्‍ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु भी एक उत्‍सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्‍वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।

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Osho प्रश्न उतर

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*आखिरी दो छोटे प्रश्न।*

*क्या बुद्धत्व को उपलब्ध होना भी नियत है? अगर ऐसा है, तो फिर कुछ करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है?*

*ओशो...*🎤💖🔔

 कोई भी फर्क नहीं पड़ता; लेकिन करना जारी रखना। करना अभिनय की तरह। बुद्धत्व तुम्हारे द्वार अपने आप आ जाएगा। बुद्धत्व का किसी करने, न करने से कोई संबंध भी नहीं है। बुद्धत्व का संबंध साक्षी-भाव से है। जाग गया जो, उसे हम बुद्ध कहते हैं।
अहंकार सुलाए हुए है। वह तुम्हारी नींद है। बस, अहंकार टूट जाए, करने का भाव गिर जाए। करना जारी रखना। क्योंकि तुम्हारी जल्दी है करना ही छोड़ने की, करने का भाव गिराने की जल्दी नहीं है।
तुम चाहते हो, जब कुछ फर्क ही नहीं पड़ता; बुद्धत्व नियत ही है; तो बस आंख बंद करो, चादर ओढो, सो जाओ। तो बुद्ध कोई पागल नहीं थे, नहीं तो वे भी चादर ओढ़कर सो गए होते!
बुद्धत्व नियत है, वह होगा ही, वह घटेगा ही। देर कितनी ही कर सकते हो। कितने ही भटको, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि बुद्धत्व तुम्हारा स्वभाव है। लेकिन अगर चादर ओढ़कर सोए रहे, तो बहुत लंबा हो जाएगा भटकाव। बुद्धत्व तो मिलेगा आखिर में। जब भी चादर से उठोगे, आंख खोलोगे; पाओगे, तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो।
आंख खोलने की कला है, साक्षी हो जाना, कर्ता न होना। इसलिए कर्म छोड़ने की जल्दी मत करना, कर्ता-भाव को गिराने की फिक्र करो।

 *और दूसरा प्रश्न है, साक्षी-भाव से अभिनय की कला तो आती दिखती है, पर आनंद-भाव क्यों कर नहीं जुड़ पाता?*

 तब तुम अभिनय का भी अभिनय ही कर रहे हो। वह असली नहीं है। अभिनय असली होना चाहिए। अगर तुमने अभिनय का भी अभिनय किया, कि भीतर तो तुम जानते हो कि कर्ता हो, मगर अब क्या करें, यह कृष्ण पीछे पड़े हैं; चलो, अभिनय करो! तो आनंद का भाव उदय नहीं होगा। आनंद का भाव तो कसौटी है कि तुमने अगर अभिनय अभिनय की तरह किया, तो आनंद भाव घटता ही है, उसमें कभी कोई अंतर नहीं पड़ता। वह होता ही नहीं उससे विपरीत।...क्रमशः

*गीता दर्शन-(भाग--8) प्रवचन-212*
🌞🌞🙏🙏🌞🌞



🔴जो नहीं है, वह नहीं है। जो है, वह है। जो नहीं है, उसको लाने का कोई उपाय नहीं है।
अगर पत्नी पर संदेह आ गया है तुम्हें, तो क्या करोगे? अगर प्रेम नहीं है, तो कैसे लाओगे? प्रेम कोई वस्तु तो नहीं है कि तुम बाजार से खरीद लाओ! कोई जबरदस्ती तो प्रेम पैदा नहीं किया जाता। और जहां-जहां जबरदस्ती की जाती है, वहां-वहां प्रेम के पैदा होने की सब संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं।
और जब तुम जबरदस्ती में किसी को प्रेम करते हो, तो वहां प्रेम कैसे होगा? सिर्फ अभिनय हो सकता है। इसलिए सौ में निन्यानबे पति-पत्नी अभिनय कर रहे हैं। वे एक दूसरे को जतला रहे हैं कि प्रेम है। लेकिन प्रेम नहीं है। प्रेम हो भी नहीं सकता; क्योंकि जबरदस्ती की जा रही है।
प्रेम स्वेच्छा से दिया गया दान है; जबरदस्ती मांगा कि खो जाता है। तुम उसकी भिक्षा नहीं ले सकते। तुम उसे लूट नहीं सकते। तुम उसका शोषण नहीं कर सकते। वह स्वेच्छा से दिया गया दान है। वह दूसरा देना चाहे, तो मिलता है। वह न देना चाहे, तो तुम ले नहीं सकते।
ओशो♣️

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परमात्मा से क्या मांगे ? osho hindi

परमात्मा के सामने जब तुम हाथ फैलाते हो, तुम मांगते क्या हो?


परमात्मा के सामने जब तुम हाथ फैलाते हो, तुम मांगते क्या हो? संसार ही मांगते हो। तुम्हारे हाथ ही संसारी हैं। तुम जब परमात्मा की प्रार्थना करने लगते हो, तुम्हारी प्रार्थना खुशामद जैसी होती है। इसलिए तो प्रार्थना को स्तुति कहते हैं--कि तू महान है, कि तू पतित-पावन है। यह तुम किस पर मक्खन लगा रहे हो!

तुमने मक्खन लगाना सीखा संसार में। यहां तुमने देखे लोग, जिनके अहंकार को जरा फुसलाओ--मक्खन लगाओ, मालिश करो--फिर जो भी तुम करवाना चाहो, करवा लो। गधों को घोड़े कहो, वे प्रसन्न हो जाते हैं। जब रास्ते पर तुम बिना प्रकाश की साइकिल से पकड़ जाओ, पुलिस वाले को इंस्पेक्टर कहो, वह छोड़ देता है।

वही आदमी भगवान की खुशामद कर रहा है, वह सोचता है कि ठीक है, समझा-बुझा लेंगे। लेकिन असली मंशा उसकी थोड़ी देर बाद जाहिर होती है, वह कहता है, नौकरी नहीं मिल रही। अब वह यह कह रहा है, इतनी प्रार्थना की तेरी और नौकरी नहीं मिल रही है, अब तेरी प्रार्थना में संदेह पैदा हुआ जा रहा है। अब तेरी इज्जत का सवाल है। अब बचा अपनी इज्जत, लगवा नौकरी। कि लड़का बीमार है, ठीक नहीं हो रहा है। और मैं इतनी तेरी पूजा कर रहा हूं। और तू क्या कर रहा है?

तुम्हारी प्रार्थना में भी शिकायत है। अगर शिकायत न हो, तो प्रार्थना ही नहीं होती। प्रार्थना की क्या जरूरत है?♣️

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What is true love

क्या आपको ये रहस्य पता है?


किसी ने कहा कि सीने में पूरा एक दिल होता है नहीं आपके सीने में केवल दिल का आधा हिस्सा होता है और आधा किसी दूसरे के पास बस इसको ढूंढना होता है पर ये इतना आसान नहीं होता मिल तो जाता है पर हजारों या लाखों में दो चार लोगों का ही मिलता है और उसी को सम्पूर्ण प्रेम कहते हैं। बाकी तो सब अपने आप को सारी उम्र तसल्ली देते रहते है और लडते झगडते जिस्मानी संबंध बनाते रहते हैं। जबकि प्रेम में कामुकता की तो कोई जगह ही नहीं होती और झगड़े का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। 

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Wednesday

स्वामी विवेकानंद के जीवन का प्रसंग .....Osho

। स्वामी विवेकानंद के कई ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें जीवन प्रबंधन के सूत्र छिपे हैं। इस सूत्रों को जीवन में उतार लिया जाए तो हम कई परेशानियों से बच सकते हैं। काफी लोग ऐसे हैं जो मेहनत तो काफी अधिक करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते हैं। इस संबंध में स्वामी विवेकानंद का एक प्रसंग काफी प्रचलित है। जानिए ये प्रसंग...
# एक दिन स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक युवक आया। वह बहुत दुखी लग रहा था। उसने स्वामीजी के पैरों में गिरकर बोला कि मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं बहुत मेहनत करता हूं, लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाता हूं। उसने विवेकानंदजी से पूछा कि भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है? मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती हूं, फिर भी कामयाब नहीं हूं।
# स्वामीजी उसकी परेशानी समझ गए। उस समय स्वामीजी के पास एक पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा कि तुम कुछ दूर तक मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ। इसके बाद तुम्हारे सवाल का जवाब देता हूं।
# वह युवक आश्चर्यचकित हो गया, फिर भी कुत्ते को लेकर निकल पड़ा। कुत्ते को सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामीजी के पास पहुंचा तो स्वामीजी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता बहुत थका हुआ लग रहा था। स्वामीजी ने व्यक्ति से पूछा कि यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया, जबकि तुम तो बिना थके दिख रहे हो।
# व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था, लेकिन कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है, लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।
# स्वामीजी ने मुस्करा कर कहा कि यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है। तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है। वह ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।
प्रसंग की सीख
अधिकांश लोग दूसरों की गलतियां देखते रहते हैं, दूसरों की सफलता से जलते हैं। अपने थोड़े से ज्ञान को बढाने की कोशिश नहीं करते हैं और अहंकार में दूसरों को कुछ भी समझते नहीं हैं। इसी सोच की वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है। इस प्रसंग की सीख ये है कि दूसरों से होड़ नहीं करना चाहिए और अपने लक्ष्य दूसरों को देखकर नहीं, बल्कि खुद ही तय करना चाहिए।

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जीवन का हर पल आनंद हो ....Osho

रोम में एक सम्राट ने अपने बड़े वजीर को फांसी की आज्ञा दे दी थी। उस दिन उसका जन्म—दिन था, वजीर का जन्म—दिन था। घर पर मित्र इकट्ठे हुए थे। संगीतज्ञ आए थे, नर्तक थे, नर्तकियां थीं। भोज का आयोजन था, जन्म—दिन था उसका। कोई ग्यारह बजे दोपहर के बाद सम्राट के आदमी आए। वजीर के महल को नंगी तलवारों ने घेरा डाल दिया। भीतर आकर दूत ने खबर दी कि आपको खबर भेजी है सम्राट ने कि आज शाम छह बजे आपको गोली मार दी जाएगी।
उदासी छा गई। छाती पीटी जाने लगीं। वह घर जो नाचता हुआ घर था एकदम से मुर्दा हो गया, सन्नाटा छा गया, नृत्य, गीत बंद हो गए, वाद्य शून्य हो गए। भोजन का पकना, बनना बंद हो गया। मित्र जो आए थे वे घबड़ा गए। घर में एकदम उदासी छा गई। सांझ छह बजे, बस सांझ छह बजे आज ही मौत! सोचा भी नहीं था कि जन्म—दिन मृत्यु का दिन बन जाएगा।
लेकिन वह वजीर, वह जिसकी मौत आने को थी, वह अब तक बैठा हुआ नृत्य देखता था। अब वह खुद उठ खड़ा हुआ और उसने कहा कि वाद्य बंद मत करो और अब नृत्य देखने से ही न चलेगा, अब मैं खुद भी नाचूंगा। क्योंकि आखिरी दिन है यह। फिर इसके बाद कोई दिन नहीं है। और सांझ को अभी बहुत देर है। और चूंकि यह आखिरी सांझ है, अब इसे उदासी में नहीं गंवाया जा सकता। अगर बहुत दिन हमारे पास होते तो हम उदास भी रह सकते थे। वह लक्जरी भी चल सकती थी। अब अवसर न रहा, अब उदास होने के लिए क्षण भर का अवसर नहीं है। बजने दो वाद्य, हो जाए नृत्य शुरू। आज हम नाच लें, आज हम गीत गा लें, आज हम गले मिल लें, क्योंकि यह दिन आखिरी है।
लेकिन वह घर तो हो गया था उदास। वे वाद्यकार हाथ उठाते भी तो वीणा न बजती। उनके हाथ तो हो गए थे शिथिल। वे चौंक कर देखने लगे। वह वजीर कहने लगा, बात क्या है? उदास क्यों हो गए हो?
वे कहने लगे कि कैसे, मौत सामने खड़ी है, हम कैसे खुशी मनाए?
तो उस वजीर ने कहा जो मौत को सामने देख कर खुशी नहीं मना सकता वह जिंदगी में कभी खुशी नहीं मना सकता। क्योंकि मौत रोज ही सामने खड़ी है। मौत तो रोज ही सामने खड़ी है। कहां था पक्का यह कि मैं सांझ नहीं मर जाऊंगा? हर सांझ मर सकता था। हर सुबह मर सकता था। जिस दिन पैदा हुआ उस दिन से ही किसी भी क्षण मर सकता था। पैदा होने के बाद अब एक ही क्षण था मरने का जो कभी भी आ सकता था। मौत तो हर दिन खड़ी है। मौत तो सामने है। अगर मौत को सामने देख कर कोई खुशी नहीं मना सकता तो वह कभी खुशी नहीं मना सकता। और वह वजीर कहने लगा, और शायद तुम्हें पता नहीं है, जो मौत के सामने खड़े होकर खुशी मना लेता है उसके लिए मौत समाप्त हो जाती है। उससे मौत हार जाती है, जो मौत के सामने खड़े होकर हंस सकता है।
मजबूरी थी। वह वजीर तो नाचने लगा तो वाद्य—गीत शुरू हुए थके और कमजोर हाथों से। नहीं, सुर— साज नहीं बैठता था। उदास थे वे लोग, लेकिन फिर भी जब वह नाचने लगा था...।
सम्राट को खबर मिली, वह देखने आया। इसकी तो कल्पना भी न थी। जान कर ही जन्म—दिन के दिन यह खबर भेजी गई थी कि कोई गहरा बदला चुकाने की इच्छा थी कि जब सब खुशी का वक्त होगा तभी दुख की यह खबर गहरा से गहरा आघात पहुंचा सकेगी। जब सारे मित्र इकट्ठे होंगे तभी यह खबर— यह बदले की इच्छा थी।
लेकिन जब दूतों ने खबर दी कि वह आदमी नाचता है और उसने कहा है कि चूंकि सांझ मौत आती है इसलिए अब यह दिन गंवाने के लायक न रहा, अब हम नाच लें, अब हम गीत गा लें, अब हम मिल लें। अब जितना प्रेम मैं कर सकता हूं कर लूं और जितना प्रेम तुम दे सकते हो दे लो, क्योंकि अब एक भी क्षण खोने जैसा नहीं है।
सम्राट देखने आया। वजीर नाचता था। धीरे— धीरे, धीरे— धीरे उस घर की सोई हुई आत्मा फिर जग गई थी। वाद्य बजने लगे थे, गीत चल रहे थे।
सम्राट देख कर हैरान हो गया! वह उस वजीर से पूछने लगा, तुम्हें पता चल गया है कि सांझ मौत है और तुम हंस रहे हो और गीत गा रहे हो?
तो उस वजीर ने कहा. आपको धन्यवाद! इतने आनंद से मैं कभी भी न भरा था जितना आज भर गया हूं और आपकी बड़ी कृपा कि आपने आज के दिन ही यह खबर भेजी। आज सब मित्र मेरे पास थे, आज सब वे मेरे निकट थे जो मुझे प्रेम करते हैं और जिन्हें मैं प्रेम करता हूं। इससे सुंदर अवसर मरने का और कोई नहीं हो सकता था। इतने निकट प्रेमियों के बीच मर जाने से बड़ा सौभाग्य और कोई नहीं हो सकता था। आपकी कृपा, आपका धन्यवाद! आपने बड़ा शुभ दिन चुना है, फिर मेरा यह जन्म—दिन भी है। और मुझे पता भी नहीं था—बहुत जन्म—दिन मैंने मनाए हैं, बहुत सी खुशियों से गुजरा हूं लेकिन इतने आनंद से भी मैं भर सकता हूं इसका मुझे पता नहीं था। यह आनंद की इतनी इंटेंसिटी, तीव्रता हो सकती है मुझे पता नहीं था। आपने सामने मौत खड़ी करके मेरे आनंद को बड़ी गहराई दे दी। चुनौती और आनंद एकदम गहरा हो गया। आज मैं पूरी खुशी से भरा हुआ हूं मैं कैसे धन्यवाद करूं?
वह सम्राट अवाक खड़ा रह गया। उसने कहा कि ऐसे आदमी को फांसी लगाना व्यर्थ है, क्योंकि मैंने तो सोचा था कि मैं तुम्हें दुखी कर सकूंगा। तुम दुखी नहीं हो सके, तुम्हें मौत दुखी नहीं कर सकती तो तुम्हें मौत पर ले जाना व्यर्थ है। तुम्हें जीने की कला मालूम है, मौत वापस लौट जाती है।
जिसे भी जीने की कला मालूम है वह कभी भी नहीं मरा है और न मरता है, न मर सकता है। और जिसे जीने की कला मालूम नहीं वह केवल भ्रम में होता है कि मैं जी रहा हूं वह कभी नहीं जीता, न कभी जीआ है, न जी सकता है। उदास आदमी जी ही नहीं रहा है, न जी सकता है। उसे जीवन की कला का ही पता नहीं। केवल वे जीते हैं जो हंसते हैं, जो खुश हैं, जो प्रफुल्लित हैं, जो जीवन के छोटे से छोटे कंकड़—पत्थर में भी खुशी के हीरे—मोती खोज लेते हैं, जो जीवन के छोटे—छोटे रस में भी परमात्मा की किरण को खोज लेते हैं, जो जीवन के छोटे—छोटे आशीषों में, जीवन के छोटे—छोटे आशीषों की वर्षा में भी प्रभु की कृपा का आनंद अनुभव कर लेते हैं। केवल वे ही जीते हैं। केवल वे ही जीते हैं! केवल वे ही सदा जीए हैं और कोई भी आदमी जिंदा होने का हकदार नहीं है—जिंदा नहीं है।

ओशो, प्रभु की पगडंडिया (प्रवचन-6)

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ओशो के 10 वचन

जानिए ओशो के कुछ ऐसे विचार, जिनसे आपकी सोच बदल सकती है...

1. आधे-अधूरे ज्ञान के साथ कभी आगे न बढ़ें। ऐसा करने पर आपको लगेगा कि आप अज्ञानी हो और अंत तक अज्ञानी ही बने रहोगे।

2. सिर्फ आपके पाप ही आपको दुखी कर सकते हैं। जो आपको अपने आप से दूर ले जाने की कोशिश करते हैं। ऐसी चीजो को अनदेखा करना ही बेहतर होता है।

3. दर्द आपको दुख देने के लिए नहीं है। लोग यही भूल करते हैं। यह दर्द आपको और अधिक सतर्क करता है। क्योंकि लोग केवल तब सतर्क होते हैं, जब तीर उनके दिल में गहरा चला जाता है और उन्हें आघात पहुंचता है।

4. किसी के साथ, किसी भी तरह की प्रतियोगिता की कोई जरूरत नहीं है। आप अपने आप श्रेष्ठ हैं और आप जैसे हैं आप पूर्ण रूप से अच्छे हैं। अपने आप को स्वीकार करें।

5. दुख पर ध्यान दोगे तो हमेशा दुखी रहोगे। सुख पर ध्यान देना शुरू करो। हम जिस पर ध्यान देते हैं, वही चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी कुंजी है।  

6. ये कोई मायने नहीं रखता है कि आप किसे प्यार करते हैं, कहां प्यार करते हैं, क्यों प्यार करते हैं, कब प्यार करते हैं, कैसे प्यार करते हैं और किस लिए प्यार करते हैं, मायने सिर्फ यही रखता है कि आप केवल प्यार करते हैं।

7. प्यार एक पक्षी है, जिसे आजाद रहना पसंद है। जिसे उड़ने के लिए पूरे आकाश की जरूरत होती है।

8. इस दुनिया में दोस्ती ही सच्चा प्यार है। दोस्ती का भाव प्यार का सर्वोच्च रूप है, जहां कुछ भी मांगा नहीं जाता, कोई शर्त नहीं होती, जहां बस दिया जाता है।

9. अगर आप प्यार से रहते हैं, प्यार के साथ रहते हैं तो आप एक महान जिंदगी जी रहे हैं, क्योंकि प्यार ही जिंदगी को महान बनाता है।

10. बड़ा सवाल ये नहीं है कि कितना सीखा जा सकता है। सवाल ये है कि कितना भुलाया जा सकता है।

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Monday

बांस की बांसुरी बनती है। और किसी लकड़ी की नहीं बनती। क्यों? क्या बांस कोई आखिरी बात है लकड़ियों में? सुंदर लकड़ियां हैं, बहुमूल्य लकड़ियां हैं। बांस भी कोई बात है? बांस की कोई कीमत है? लेकिन बांसुरी बनती बांस से है। देवदारु से नहीं, चीड़ से नहीं, टीक से नहीं, लेबनान के सीदारों से नहीं; आकाश छूते बड़े—बड़े वृक्ष हैं, उनसे नहीं बनती—बनती है बांस की पोंगरी से। क्या खूबी है बांस की? क्या राज है बांस का?
जो राज बांस का है, वही राज भक्त का है। भक्त बांसुरी बनता है। तपस्वी—त्यागी नहीं बनते। तपस्वी—त्यागी आकाश में उठे लेबनान के दरख्त हैं, लेबनान के सीदार हैं। बड़ी उनकी अकड़ है। बड़ा उनका बल है। दूर जमीन में फैली उनकी जड़ें हैं—तप की, तपश्चर्या की। उनका इतिहास है। भक्त का क्या इतिहास! दीन—हीन! बांस की पोंगरी! मगर भक्त बनता है परमात्मा के गीत का वाहन।
देखो न मीरा को! जैसा मीरा गाई, कौन तपस्वी गाया है? जैसा मीरा गाई है, कौन योगी गाया है? जैसी मीरा नाची, कौन कब नाचा है? मीरा बेजोड़ है। कला क्या है मीरा की? बांस की पोंगरी है।
एक बात जान ली कि मेरे किए कुछ भी न होगा, क्योंकि मैं ही नहीं हूं। कृत्य तो तब उठे जब मेरा होना सिद्ध हो। मेरा होना ही सिद्ध नहीं होता, तो कृत्य कैसे उठेगा? कृत्य जाता है, मैं जाता है, तब कोई बहने लगता है—अज्ञात लोक से कोई उतरने लगता है! कोई किरण आती दूर से! कोई गीत आता दूर से! कोई नृत्य आता दूर से! भर जाता है तुम्हें। आपूर कर जाता है तुम्हें। इतना भर देता है कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगता है। दूसरों को भी मिलने लगता है। बाढ़ आ जाती है।
तुम यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं! असहाय हो, बस असहाय ही रह जाओ। अब करने को मत जोड़ो। करने को जोड़ने का मतलब है कि फिर तुम असहाय न रहे, फिर कुछ करने लगे। बेबस हो, अब बेबस ही हो जाओ। अब इसमें जोड़ो मत कुछ करना। अब पत्थर मत उठाओ, अन्यथा आते कृष्ण रुक जाएंगे, देहली पर रुक जाएंगे।
अब जो प्रभु कराए, उसे होने दो। उससे अन्यथा की चाह भी मत करो, मांग भी मत करो। तब तुम्हें कला आ गई भक्ति की। असहाय अवस्था में पूरी तरह डूब जाना भक्ति का जन्म है।
ओशो : पद घुंघरू बांध - मीरा बाई (18-282)

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Sunday

मृत्यु

🔴मृत्यु केवल मनुष्य के लिए है। इसे थोड़ा समझ लें। पशु भी मरते है, पौधे भी मरते है, लेकिन मृत्यु मानवीय घटना है। पौधे मरते हैं, लेकिन उन्हें अपनी मृत्यु का कोई बोध नहीं है। पशु भी मरते हैं, लेकिन अपनी मृत्यु के संबंध में चिंतन करने में असमर्थ है।

तो मृत्यु केवल मनुष्य की ही होती है, क्योंकि मनुष्य जानकर मरता है जानते हुए मरता है। मृत्यु निश्‍चित है, ऐसा बोध मनुष्य को है। चाहे मनुष्य कितना ही भुलाने की कोशिश करे, चाहे कितना ही अपने को छिपाये, पलायन करे, चाहे कितने ही आयोजन करे सुरक्षा के, भुलावे के; लेकिन हृदय की गहराई में मनुष्य जानता है कि मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं है।

मृत्यु के संबंध में पहली बात तो यह खयाल में ले लेनी चाहिए कि मनुष्य अकेला प्राणी है जो मरता है। मरते तो पौधे और पशु भी है, लेकिन उनके मरने का भी बोध मनुष्य को होता है, उन्हें नहीं होता। उनके लिए मृत्यु एक अचेतन घटना है। और इसलिए पौधे और पशु धर्म को जन्म देने में असमर्थ हैं।

जैसे ही मृत्यु चेतन बनती है, वैसे ही धर्म का जन्म होता है। जैसे ही यह प्रतीति साफ हो जाती है कि मृत्यु निश्‍चित है, वैसे ही जीवन का सारा अर्थ बदल जाता है; क्योंकि अगर मृत्यु निश्‍चित है तो फिर जीवन की जिन क्षुद्रताओं में हम जीते हैं उनका सारा अर्थ खो जाता है।

मृत्यु के संबंध में दूसरी बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है कि वह निश्‍चित है। निश्‍चित का मतलब यह नहीं कि आपकी तारीख, बड़ी निश्‍चित है। निश्‍चित का मतलब यह कि मृत्यु की घटना निश्‍चित है। होगी ही। लेकिन यह भी अगर बिलकुल साफ हो जाये कि मृत्यु निश्‍चित है, होगी ही। तो भी आदमी निश्‍चित हो सकता है। जो भी निश्‍चित हो जाता है, उसके बाबत हम निश्‍चित हो जाते हैं, चिंता मिट जाती है।

मृत्यु के संबंध में तीसरी बात महत्वपूर्ण है, और वह यह है कि मृत्यु निश्‍चित है, लेकिन एक अर्थ में अनिश्‍चित भी है। होगी तो, लेकिन कब होगी, इसका कोई भी पता नहीं। होना निश्‍चित है, लेकिन कब होगी, इसका कोई भी पता नहीं है। निश्‍चित है और अनिश्‍चित भी। होगी भी, लेकिन तय नहीं है, कब होगी। इससे चिंता पैदा होती है। जो बात होनेवाली है, और फिर भी पता न चलता हो, कब होगी; अगले क्षण हो सकती है, और वर्षों भी टल सकती है। विज्ञान की चेष्टा जारी रही तो शायद सदियां भी टल सकती है। इससे चिंता पैदा होती है।
कीर्कगार्ड ने कहा है, मनुष्य की चिंता तभी पैदा होती है जब एक अर्थ में कोई बात निश्‍चित भी होती है और दूसरे अर्थ में निश्‍चित नहीं भी होती है। तब उन दोनों के बीच में मनुष्य ओचता में पड़ जाते हैं।♣️

🔴परमात्मा के सामने जब तुम हाथ फैलाते हो, तुम मांगते क्या हो? संसार ही मांगते हो। तुम्हारे हाथ ही संसारी हैं। तुम जब परमात्मा की प्रार्थना करने लगते हो, तुम्हारी प्रार्थना खुशामद जैसी होती है। इसलिए तो प्रार्थना को स्तुति कहते हैं--कि तू महान है, कि तू पतित-पावन है। यह तुम किस पर मक्खन लगा रहे हो!

तुमने मक्खन लगाना सीखा संसार में। यहां तुमने देखे लोग, जिनके अहंकार को जरा फुसलाओ--मक्खन लगाओ, मालिश करो--फिर जो भी तुम करवाना चाहो, करवा लो। गधों को घोड़े कहो, वे प्रसन्न हो जाते हैं। जब रास्ते पर तुम बिना प्रकाश की साइकिल से पकड़ जाओ, पुलिस वाले को इंस्पेक्टर कहो, वह छोड़ देता है।

वही आदमी भगवान की खुशामद कर रहा है, वह सोचता है कि ठीक है, समझा-बुझा लेंगे। लेकिन असली मंशा उसकी थोड़ी देर बाद जाहिर होती है, वह कहता है, नौकरी नहीं मिल रही। अब वह यह कह रहा है, इतनी प्रार्थना की तेरी और नौकरी नहीं मिल रही है, अब तेरी प्रार्थना में संदेह पैदा हुआ जा रहा है। अब तेरी इज्जत का सवाल है। अब बचा अपनी इज्जत, लगवा नौकरी। कि लड़का बीमार है, ठीक नहीं हो रहा है। और मैं इतनी तेरी पूजा कर रहा हूं। और तू क्या कर रहा है?

तुम्हारी प्रार्थना में भी शिकायत है। अगर शिकायत न हो, तो प्रार्थना ही नहीं होती। प्रार्थना की क्या जरूरत है?♣️

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Friday

"यदि कोई मस्तिष्क को प्रति घण्टा  20 से 30 सेकेंड के लिए भी खाली रखने में सफल हो जाता है जो थोड़े से अभ्यास से ही सम्भव है तो वह ...
तनाव
अवसाद
नकारात्मक विचार
मानसिक अशांति जैसी अनेक दुःखद अनुभवों से बचा रहता है ...
ऐसा साधक  जीवंतता से भरा होता है और शांतिपूर्ण ढंग से न केवल जीवन को जीता है बल्कि सभी विषयों में संतुलन के साथ प्रतिक्रिया करता है ।
ऐसा करने वाला  "द्वंद" से मुक्त होता है , उसका किसी भी सम्बंध में निर्णय बहुत स्पष्ट रहता है ।
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