google.com, pub-8281854657657481, DIRECT, f08c47fec0942fa0 Osho Philosophy Hindi: September 2018

Saturday

Osho Philosophy Hindi ( सेवा का सही अर्थ क्या है? )

सेवा का सही अर्थ क्या है?


एक ईसाई मां अपने बच्चे को समझा रही थी कि बेटा, दूसरों की सेवा करना चाहिए। भगवान ने तुम्हें इसीलिए बनाया है कि तुम दूसरों की सेवा करो।

बेटा बुद्धिमान था, उस छोटे—से बच्चे ने—और छोटे बच्चे अक्सर ऐसी बातें पूछ लेते हैं कि बूढ़े जवाब न दे सकें—उस छोटे बच्चे ने कहा: यह तो मैं समझ गया कि मुझे इसलिए बनाया है कि दूसरों की सेवा करूं। दूसरों को किसलिए बनाया है? इसका भी उत्तर चाहिए।

मां जरा मुश्किल में पड़ी होगी, अब क्या कहे? अगर कहे, दूसरों को इसलिए बनाया है कि तुम सेवा करो, तो यह तो बड़ा अन्याय है, कि मुझको सेवा करने के लिए बनाया और उनको सेवा करवाने के लिए! यह तो मूल से अन्याय हो गया! अगर मां यह कहे कि दूसरों को इसलिए बनाया है कि वे तुम्हारी सेवा करें और तुम्हें इसलिए बनाया है कि तुम उनकी सेवा करो, तो बेटा कहेगा, अपनी—अपनी सब कर लें, क्यों फिजूल की झंझट खड़ी करनी!

मैं यही कह रहा हूं। इस दुनिया में बहुत हो चुकी दूसरों की सेवा, कुछ सार हाथ नहीं आया। दूसरों की सेवा के नाम पर बहुत थोथे धंधे चल चुके। सेवा के नाम पर सत्ताधिकारियों ने लोगों का शोषण किया है। जो भी सेवक बनकर आता है, आज नहीं कल सत्ताधिकारी हो जाता है। जो तुम्हारे पैर दबाने से शुरू करता है, एक दिन तुम्हारी गर्दन दबाएगा! जब तुम्हारे पैर दबाए तभी चेत जाना, अन्यथा पीछे बहुत देर हो जाती है। फिर चेतने से कुछ सार नहीं। क्यों करेगा कोई सेवा तुम्हारी? और सेवा करेगा, तो बदला मांगेगा; पुरस्कार चाहेगा।

मेरी दीक्षा यही है तुम्हें: अपने आनंद से जीयो। इतना ही पर्याप्त होगा कि तुम किसी दूसरे के आनंद में बाधा न बनो। इतना ही पर्याप्त होगा कि तुम अपने आनंद का नृत्य नाचो और अपना गीत गाओ। शायद तुम्हारे आनंद की तरंग दूसरों को भी लग जाए और वे भी आनंदित हो जाएं। शायद थोड़ी गुलाल तुमसे उड़े और वे भी लाल हो जाएं! थोड़ा रंग तुमसे छिटके और वे भी रंग जाएं। यह दूसरी बात है। तुमने सेवा की, ऐसा सोचना मत।

कोयल गाती है। तुम क्या सोचते हो कवियों की सेवा कर रही है, कि लिखो कविताएं, देखो मैं गा रही हूं! जागो कवियो! उठाओ अपनी कलमें, लिखो कविताएं! मैं आ गई सेवा करने को फिर। कि पपीहा पुकारता है, कि संतो जागो! कि देखो मैं पिय को पुकार रहा हूं, तुम भी पुकारो! मैं तुम्हारी सेवा करने आ गया। तुम इस जगत में देखते हो, कौन किसकी सेवा कर रहा है? कोयल गीत गा रही है—अपने आनंद से। पपीहा पुकार रहा है—अपने रस में विमुग्ध हो। फूल खिले हैं—अपने रस से। चांदत्तारे चलते—अपनी ऊर्जा से। तुम भी अपने में जीओ।

#ओशो

Labels: ,

Sunday

Osho Philosophy Hindi [सहज रहने का क्या अर्थ है ? ]

सहज रहने का क्या अर्थ है ?


*गरब न करिबा, सहजै रहिबा...*‌
 
सहज रहना। क्या अर्थ है सहज रहने का? हिसाब-किताब से मत रहना, निर्दोष भाव से रहना। वृक्ष सहज हैं, पशु-पक्षी सहज हैं, सिर्फ आदमी असहज है। असहजता कहां से आ रही है? जो नहीं हूं, वैसा लोगों को दिखला दूं; जो नहीं हूं वैसा सिद्ध कर दूं--इससे असहजता पैदा होती है। हूं गरीब, लेकिन लोगों पर धाक जमा दूं अमीर होने की। हूं अज्ञानी, लेकिन लोगों को खबर रहे कि ज्ञानी हूं।

सहज तुम तभी हो सकोगे जब तुम यह अहंकार की यात्रा छोड़ दो। तुम कहो, जैसा हूं हूं--बुरा तो बुरा, भला तो भला। जैसा हूं ऐसा परमात्मा का बनाया हुआ हूं। इसमें अकारण पर्दे न डालूंगा, छिपाऊंगा नहीं। अभी तुम्हारी हालत ऐसी है जैसे घाव है, और उस पर तुमने गुलाब का फूल रखकर छिपा दिया है। तो तुम असहज हो गये हो। घाव तो भीतर है, गुलाब का फूल ऊपर रखा है। भीतर मवाद पक रही है। और गुलाब के फूल के कारण घाव भर भी नहीं सकता, क्योंकि सूरज की रोशनी न मिलेगी, ताजी हवा न मिलेगी।      
भीतर तुम जो हो, वैसा ही अपने को उघाड़ दो। तब तुम सहज हो जाओगे। भय छोड़ो। भय क्या है? लोग बुरा ही कहेंगे न, तो हर्ज क्या है? लोग ध्यान नहीं देंगे, सम्मान नहीं करेंगे, तो खो क्या जायेगा? उनके सम्मान से मिलता ही क्या है?
🙏🙏🌹🌹🔥🔥$$
ओशो✍

Labels: ,

Wednesday

Osho Philosophy [ प्रश्न: क्या हर चीज़ के लिए परमात्मा जिम्मेवार है? ]

प्रश्न: क्या हर चीज़ के लिए परमात्मा जिम्मेवार है?


साधारण आदमी–जब उसके जीवन में दुख आता है, तब शिकायत करता है। सुख आता है तब धन्यवाद नहीं देता। जब दुख आता है, तब वह कहता है कि ‘कहीं कुछ भूल हो रही है। परमात्मा नाराज है। भाग्य विपरीत है।’ और जब सुख आता है, तब वह कहता है कि ‘यह मेरी विजय है।’

मुल्ला नसरुद्दीन एक प्रदर्शनी में गया–अपने विद्यार्थियों को साथ लेकर। उस प्रदर्शनी ,में एक जुए का खेल चल रहा था। लोग तीर चला रहे थे धनुष से और एक निशाने पर चोट मार रहे थे। निशाने पर चोट लग जाये तो जितना दांव पर लगाते थे, उससे दस गुना उन्हें मिल जाता था। निशाने पर चोट न लगे, तो जो उन्होंने दांव पर लगाया, वह खो जाता।

नसरुद्दीन अपने विद्यार्थियों के साथ पहुँचा; उसने अपनी टोपी सम्हाली; धनुष बाण उठाया; दांव लगाया और पहला तीर छोड़ा तीर पहुंचा ही नहीं–निशान तक। लगने की बात दूर, वह कोई दस–पंद्रह फीट पहले गिर गया। लोग हंसने लगे। नसरुद्दीन ने अपने विद्यार्थियों से कहा, ‘‘इन नासमझों की हंसी की फिक्र मत करो। अब तुम्हें समझाता हूं कि तीर क्यों गिरा।’

लोग भी चौंककर खड़े हो गये। वह जो जुआ खिलाने वाला था, वह भी चौंककर रह गया। बात ही भूल गया। नसरुद्दीन ने कहा, ‘‘देखो, यह उस, सिपाही का तीर है, जिसको आत्मा पर भरोसा नहीं–जिसको आत्म–विश्वास नहीं। वह पहुंचता ही नहीं है–लक्ष्य तक; पहले ही गिर जाता है।अब तुम दूसरा तीर देखो।’

सभी लोग उत्सुक हो गये। उसने दूसरी तीर प्रत्यंचा पर रखा और तेजी से चलाया। वह तीर निशान से बहुत आगे गया। इस बार लोग हंसे नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, ‘देखो, यह उस आदमी का तीर है, जो जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास से भरा हुआ है।’ और तब उसने तीसरा तीर उठाया और संयोग की बात कि वह जाकर निशान से लग गया। नसरुद्दीन ने जाकर अपना दांव उठाया और कहा, ‘दस गुने रुपये दो।’ भीड़ में थोड़ी फुसुसाहट हुई और लोगों ने पूछा, ‘‘और यह किसका तीर है ?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘‘यह मेरा तीरहै। पहला तीर उस सिपाही का था, जिसको आत्म–विश्वास नहीं है। दूसरा, उस सिपाही का था, जिसको ज्यादा आत्म–विश्वास है।और तीसरा–जो लग गया, वह मेरा तीर है।’

यही साधारण मनो दशा है। जब तीर लग जाये, तो तुम्हारा; चूक जाये, तो कोई और जिम्मेवार है। और जब तुम किसी को जिम्मेवार न खोज सको, तो परमात्मा जिम्मेवार है ! जब तक तुम दृश्य जगत में किसी को जिम्मेदार खोज लेते हो, तब तक अपने दुख उस पर डाल देते हो। अगर दृश्य जगत में तुम्हें कोई जिम्मेवार न दिखाई पड़े तब भी तुम जिम्मेवारी अपने कंधे पर तो नहीं ले सकते; तब परमात्मा तुम्हारे काम आता है। वह तुम्हारे बोझ को अपने कंधे पर ढोता है।

तुमने परमात्मा को अपने दुखों से ढांक दिया है। अगर वह दिखाई नहीं पड़ता है, तो हो सकता है, सबने मिलकर इतने दुख उस पर ढांक दिये हैं कि वह ढंक गया है; और उसे खोजना मुश्किल है।

साभार: ओशो विचार मंच

Labels: ,

Friday

Osho Philosophy Hindi [सहनशीलता]

सहनशीलता


सहनशीलता जिसमें नहीं है, वह शीघ्र टूट जाता है। और, जिसने सहनशीलता के कवच को ओढ़ लिया है, जीवन में प्रतिक्षण पड़ती चोटें उसे और मजबूत कर जाती हैं।
मैंने सुना है : एक व्यक्ति किसी लुहार के द्वार से गुजरता था। उसने निहाई पर पड़ते हथौड़े की चोटों को सुना और भीतर झांककर देखा। उसने देखा कि एक कोने में बहुत से हथौड़े टूटकर और विकृत होकर पड़े हुए हैं। समय और उपयोग ने ही उनकी ऐसी गति की होगी। उस व्यक्ति ने लुहार से पूछा, ''इतने हथोड़ों को इस दशा तक पहुंचाने के लिए कितनी निहाइयों की आपको जरूरत पड़ी?'' लुहार हंसने लगा और बोला, ''केवल एक ही मित्र, एक ही निहाई सैकड़ों हथौड़ों को तोड़ डालती है, क्योंकि हथौड़े चोट करते हैं और निहाई सहती है।''
यह सत्य है कि अंत में वही जीतता है, जो चोटों को धैर्य से स्वीकार करता है। निहाई पर पड़ती हथौड़ों की चोटों की भांति ही उसके जीवन में भी चोटों की आवाज तो बहुत सुनी जाती है, लेकिन अंतत: हथौड़े टूट जाते हैं और निहाई सुरक्षित बनी रहती है।

--सदगुरु ओशो द्वारा लिखित पत्र, ‘पथ के प्रदीप’ नामक पुस्तक से संकलित

Labels: ,

Thursday

Osho Philosophy Hindi [मैं न सत्य को देखता हूं न सौंदर्य को। प्रभु का भी मुझे कुछ आभास नहीं होता है। आपकी बातें न समझ पाता हूं न पचा पाता हूं। मैं क्या करूं?]

मैं न सत्य को देखता हूं न सौंदर्य को। प्रभु का भी मुझे कुछ आभास नहीं होता है। आपकी बातें न समझ पाता हूं न पचा पाता हूं। मैं क्या करूं?

Answer:-

प्रभु को देखने का प्रश्न नहीं है, आंख खोलने का प्रश्न है। सौंदर्य को अनुभव करने की बात ऐसी नहीं है कि सौंदर्य वहां पड़ा है और अनुभव हो जाए। सौंदर्य को अनुभव करनेवाला संवेदनशील हृदय जगाना पड़ता है। भीतर संवेदनशील हृदय हो तो बाहर सौंदर्य है। अंधा आदमी प्रकाश को तलाशे और प्रकाश उसे न मिले, तो प्रकाश का कोई कसूर है? अंधे आदमी को आंख का इलाज खोजना चाहिए, आंख की औषधि खोजनी चाहिए। अंधे आदमी को सूरज की खोज में नहीं जाना चाहिए, वैद्य की खोज में जाना चाहिए।

इसलिए संतों ने निरंतर कहा है कि परमात्मा को मत खोजो, गुरु को खोजो। परमात्मा को कैसे खोजोगे? परमात्मा को खोजने में तुम सीधे समर्थ होते तो तुमने कभी का खोज लिया होता।



एक अंधे आदमी को बुद्ध के पास लाया गया था। वह अंधा आदमी बड़ा तार्किक था। अंधे अकसर तार्किक हो जाते हैं। अंधों को तार्किक होना पड़ता है। तार्किकता अंधेपन के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी है। कारण है। अंधा आदमी अगर यह चुपचाप मान ले कि प्रकाश है तो उसने यह भी मान लिया कि मैं अंधा हूं। और कौन मानना चाहता है  कि मैं अंधा हूं! मन को पीड़ा होती है। अहंकार को चोट पड़ती है। छाती में घाव हो जाता है। प्रकाश को मानो तो यह मानना पड़ेगा कि मैं अंधा हूं, क्योंकि मुझे दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए उचित यही है कि प्रकाश को ही न मानो। जड़ से ही काट दो बात, प्रकाश है ही नहीं। और जब प्रकाश नहीं है तो मुझे क्यों दिखाई पड़ेगा, कैसे दिखाई पड़ेगा? प्रकाश को इनकार करके अंधे आदमी ने अपने अंधेपन को इनकार कर दिया। उसने अपने घाव से बचा लिया। वह जो पीड़ा होती है, वह जो अवमानना होती है,वह जो अपने ही सामने दीनता हो जाती कि मैं अंधा हूं, अभागा हूं,उससे बचने का उपाय क्या है? उससे बचने का एक ही उपाय है कि प्रकाश है ही नहीं। इसलिए अंधा तार्किक हो जाता है।

नास्तिक का इतना ही अर्थ होता है कि वह आदमी आत्मरक्षा में लगा है। कह रहा है : ईश्वर नहीं है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो फिर मैं दीन हूं। अगर ईश्वर है, तो फिर मैंने अपने जीवन का कोई सदुपयोग नहीं किया। अगर ईश्वर है, तो मैंने ऐसे ही कूड़े-कांकर को इकट्ठा करने में जीवन गंवा दिया। मैं व्यर्थ गया।

कौन मानना चाहता है कि मैं व्यर्थ गया! मैं सार्थक हूं, तो एक ही उपाय है कि ईश्वर नहीं है। होता तो मुझे भी मिल गया होता, मुझमें क्या कमी थी? मेरी पात्रता में कौन-सी कमी है? होता तो मुझे भी मिल गया होता। नहीं मिला, तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं : या तो मैं अपात्र हूं या वह नहीं है। दूसरी ही बात माननी आसान मालूम पड़ती है, अहंकार के विपरीत नहीं जाती । इसलिए मैंने कहा कि अंधे तार्किक हो जाते हैं। साधारण अंधों की बात नहीं कर रहा हूं, आध्यात्मिक अंधों की बात कर रहा हूं।

उस अंधे आदमी को बुद्ध के पास ले जाया गया। बड़ा तार्किक था! जो भी सिद्ध करना चाहते कि प्रकाश है, वह असिद्ध कर देता और भी एक बात खयाल में ले लेना, जिसको प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है, तुम उसके सामने प्रकाश को सिद्ध करना भी चाहोगे तो कर न पाओगे। वह तुम्हें असिद्ध कर देगा। यद्यपि तुम जानते हो कि प्रकाश है, मगर जानना एक बात है और जनाना दूसरी बात है। जानने से क्या होता है? कैसे सिद्ध करोगे अंधे आदमी के सामने कि प्रकाश है? न तो प्रकाश को उसके हाथ में दे सकते हो कि वह छू ले, चख ले, गंध ले ले, प्रकाश को बजाकर ध्वनि सुन ले। ये चार इंद्रियां उसके पास हैं।

वह अंधा आदमी भी अपने मित्रों को कहता था कि तुम प्रकाश को मुझे दे दो, मैं ज़रा हाथ में प्रकाश लेकर स्पर्श कर लूं। और ऐसा भी नहीं है कि प्रकाश हाथ में नहीं पड़ता है, लेकिन प्रकाश का स्पर्श नहीं होता। खड़े हो धूप में तो हाथ पर प्रकाश बरस रहा है, लेकिन स्पर्श नहीं होता।

वह अंधा आदमी कहता था कि मुझे दे दो, ज़रा मैं चख लूं--मीठा है, कड़वा है, तिक्त है, स्वाद क्या है? कोई भी चीज हो तो उसका स्वाद तो होगा। उसे बजाकर, ठोक कर देख लूं, कुछ आवाज तो निकलेगी! ऐसे मैं मान लूंगा कि आज प्रकाश है।

वे थक गए थे, हार गए थे। उनका सारा अनुभव दो कौड़ी का कर दिया था उस अंधे आदमी ने। एक नास्तिक हजारों अनुभव से भरे हुए लोगों को हरा सकता है। नकार की वह बड़ी खूबी है। तुम कहो कि चांद सुंदर है और हजार लोग कहें कि चांद सुंदर है, लेकिन एक आदमी खड़ा हो जाए और कहे कि सिद्ध करो,क्या सौंदर्य है, कौन-सा सौंदर्य, कहां है सौंदर्य?--तो हजार व्यक्ति जो अनुभव कर रहे थे चांद का सौंदर्य, अपने भीतर सिकुड़ जाएंगे, कोई उपाय न पाएंगे। अनुभव को सिद्ध करने का कोई उपाय होता ही नहीं।

वे उस आदमी को बुद्ध के पास ले आए, सोचा कि बुद्ध तो सिद्ध कर सकेंगे! लेकिन बुद्ध अनूठे व्यक्ति थे। बुद्ध ने कहा, तुम इसे मेरे पास लाए क्यों, इसे किसी वैद्य के पास ले जाओ। मेरा अपना वैद्य है, जो कभी-कभी मेरी चिकित्सा करता है। जीवक उसका नाम है,तुम उसके पास ले जाओ। इसकी आंख पर जाली है, जाली कटनी चाहिए। जाली कट गई। छह महीने के बाद वह अंधा आदमी नाचता हुआ आया, बुद्ध के चरणों में गिरा और कहा : मुझे क्षमा कर दें। मैंने उस समय जो बातें कही थीं, मैं अज्ञानी था। मैंने जो दंभ दिखलाया था कि प्रकाश नहीं है, वह मेरी भ्रांति थी। मगर मैं और कर भी क्या सकता था? मुझे दिखाई नहीं पड़ता था, तो मुझे ऐसा ही लगता था कि जितने लोग कहते हैं प्रकाश है, वे सब मुझे अंधा सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे पीड़ा होती थी। प्रकाश शब्द ही मुझे कांटे की तरह चुभता था। आपने भला किया मुझे समझाया नहीं, समझाते तो मैं समझता नहीं। मैं आपसे भी जूझा होता, आपसे भी विवाद किया होता। और अब मैं जानता हूं,मैंने देख लिया। मैं भी किसी अंधे आदमी को समझा न सकूंगा। अब मैं आपकी तकलीफ भी समझता हूं। और मेरे मित्रों की तकलीफ भी समझता हूं; उनसे भी क्षमा मांग आया हूं।

तुम पूछो कि मैं न सत्य को देखता हूं न सौंदर्य को। प्रभु का भी मुझे कुछ आभास नहीं होता है, तो इसका एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर जो संवेदना के स्रोत होने चाहिए, वे सोए पड़े हैं। उन्हें जगाना होगा। तुम परमात्मा की बात ही छोड़ दो। तुम ध्यान करो।

ज्योति से ज्योति जले

ओशो

Labels: ,

Wednesday

Osho Philosophy hindi [एक घंटा ध्यान करेंगे। और एक घंटा जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना सको बना लेना ]

 एक घंटा रोज आंख बंद करके,

कल्पना को खुली छूट दो। 

कल्पना को पूरी खुली छूट दो।
वह किन्हीं पापों में ले जाये, जाने दो। तुम रोको मत।

तुम साक्षी-भाव से उसे देखो कि यह मन जो-जो कर रहा है,
मैं देखूं। जो शरीर के द्वारा नहीं कर पाये,
वह मन के द्वारा पूरा हो जाने दो।
तुम जल्दी ही पाओगे कुछ दिन के…

एक घंटा नियम से कामवासना पर अभ्यास करो,
कामवासना के लिए एक घंटा ध्यान में लगा दो,
आंख बंद कर लो और जो-जो
तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठती हैं,
सपने उठते हैं,

जिनको तुम दबाते होओगे निश्चित ही–
उनको प्रगट होने दो! घबड़ाओ मत,
क्योंकि तुम अकेले हो।
किसी के साथ कोई तुम पाप कर भी नहीं रहे।
किसी को तुम कोई चोट पहुंचा भी नहीं रहे।

किसी के साथ तुम कोई
अभद्र व्यवहार भी नहीं कर रहे कि
किसी स्त्री को घूरकर देख रहे हो।
तुम अपनी कल्पना को ही घूर रहे हो।
लेकिन पूरी तरह घूरो।
और उसमें कंजूसी मत करना।

मन बहुत बार कहेगा कि “अरे,
इस उम्र में यह क्या कर रहे हो!’
मन बहुत बार कहेगा कि यह तो पाप है।
मन बहुत बार कहेगा कि शांत हो जाओ,
कहां के विचारों में पड़े हो!

मगर इस मन की मत सुनना।
कहना कि एक घंटा तो दिया है इसी ध्यान के लिए,
इस पर ही ध्यान करेंगे।
और एक घंटा जितनी स्त्रियों को,
जितनी सुंदर स्त्रियों को,
जितना सुंदर बना सको बना लेना।

इस एक घंटा जितना इस
कल्पना-भोग में डूब सको, डूब जाना।
और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि
मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके,
बिना निर्णय किये कि पाप है कि अपराध है।
कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही
तीन-चार महीने के निरंतर प्रयोग के
बाद हलके हो जाओगे।
वह मन से धुआं निकल जायेगा।

तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं,
लेकिन तुम्हारे मन में देखने की
कोई आकांक्षा नहीं रह गई।
और जब तुम्हारे मन में किसी को
देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती,
तब लोगों का सौंदर्य प्रगट होता है।

वासना तो अंधा कर देती है,
सौंदर्य को देखने कहां देती है!
वासना ने कभी सौंदर्य जाना?
वासना ने तो अपने ही सपने फैलाये।

और वासना दुष्पूर है;
उसका कोई अंत नहीं है।
वह बढ़ती ही चली जाती है।

जिन सूत्र
ओशो

Labels: ,

Tuesday

Osho Philisophy {रोना}



रोना , (आंसू )


रोने का अर्थ क्या है? रोने का अर्थ है: कोई भाव इतना प्रबल हो गया है कि अब आंसुओं के अतिरिक्त उसे प्रकट करने का कोई और उपाय नहीं है। फिर वह भाव चाहे दुख का हो, चाहे आनंद का हो।

आंसू अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। गहन भावनाओं को,जो हृदय के गहरे से उठती हैं, वे आंसुओं में ही प्रकट हो सकती हैं। शब्द छोटे पड़ते हैं। गीत छोटे पड़ते हैं। जहां गीत चूक जाते हैं, वहां आंसू शुरू होते हैं। जो किसी और तरह से प्रकट नहीं होता वह आंसुओं से प्रकट होता है। आंसू तुम्हारे भीतर कोई ऐसी भाव-दशा से उठते हैं जिसे सम्हालना और संभव नहीं है, जिसे तुम न सम्हाल सकोगे, जिसकी बाढ़ तुम्हें बहा ले जाती है।

फिर, ये आंसू चूंकि आनंद के हैं, इनमें मुस्कुराहट भी मिली होगी, इनमें हंसी का स्वर भी होगा। और चूंकि ये आंसू अहोभाव के हैं, इनमें गीत की ध्वनि भी होगी। तो गाओ भी,रोओ भी, हंसो भी--तीनों साथ चलने दो। कंजूसी क्या? एक क्यों? तीनों क्यों नहीं?

लेकिन, मन हिसाबी-किताबी है। वह सोचता है: एक करना ठीक मालूम पड़ता है--या तो गा लो या रो लो। मैं तुमसे कहता हूं कि इस हिसाब को तोड़ने की ही तो सारी चेष्टा चल रही है। यही तो दीवाने होने का अर्थ है।

तुमने अगर कभी किसी को रोते, हंसते, गाते एक साथ देखा हो, तो सोचा होगा पागल है। पागल ही कर सकता है इतनी हिम्मत। होशियार तो कमजोर होता है, होशियारी के कारण कमजोर होता है। होशियार तो सोच-सोच कर कदम रखता है, सम्हाल-सम्हाल कर कदम रखता है। उसी सम्हालने में तो चूकता चला जाता है।

होशियारों को कब परमात्मा मिला! होशियार चाहे संसार में साम्राज्य को स्थापित कर लें, परमात्मा के जगत में बिलकुल ही वंचित रह जाते हैं। वह राज्य उनका नहीं है। वह राज्य तो दीवानों का है। वह राज्य तो उनका है जिन्होंने तर्क-जाल तोड़ा, जो भावनाओं के रहस्यपूर्ण लोक में प्रविष्ट हुए।

इन तीनों द्वारों को एक साथ ही खुलने दो। परमात्मा ने हृदय पर दस्तक दी, तब ऐसा होता है। इसे सौभाग्य समझो।

ओशो
पद घुँघरू बांध, प्रवचन #20

☀️🙏☀️

Labels: ,

Sunday

Osho Philosophy Hindi [क्या आधा घंटे को मंदिर में जाकर मैं धार्मिक हो जाऊंगा?]

क्या आधा घंटे को मंदिर में जाकर मैं धार्मिक हो जाऊंगा?




कई मित्रों ने पूछा है कि हम क्या करें, थोड़ी-बहुत देर के लिए समय निकाल सकते हैं, समय ज्यादा हमारे पास नहीं है, तो हम क्या करें--मंत्र-जाप करें, नाप जपें, पूजा करें, थोड़ा-बहुत समय दे सकते हैं उसमें हम क्या करें?*

मैं निवेदन करना चाहूंगा, धर्म कोई ऐसी बात नहीं कि आप थोड़े से समय में कर लें और उससे निपट जाएं। धर्म चैबीस घंटे की साधना है। और इस बात से बहुत भ्रांति दुनिया में पैदा हुई है कि कोई सोचे कि हम थोड़ी देर को धार्मिक हो जाएं। धार्मिक होना चैबीस घंटे चलने वाली श्वासों की तरह है। ऐसा नहीं कि आप आधा घंटा श्वास ले लें, फिर साढ़े तेईस घंटा श्वास लेने की कोई जरूरत न रह जाए। धर्म एक अखंड चित्त की दशा है। खंडित नहीं। कोई कंपार्टमेंट नहीं बनाए जा सकते कि आधा घंटे को मंदिर में जाकर मैं धार्मिक हो जाऊंगा। यह असंभव है, यह बिलकुल इंपासिबल है। जो आदमी मंदिर के बाहर अधार्मिक था और मंदिर के बाहर फिर अधार्मिक हो जाएगा। आधा घंटे को मंदिर के भीतर धार्मिक हो सकता है?

चित्त एक अविच्छिन्न प्रवाह है, एक कंटीन्युटी है। कहीं ऐसा हो सकता है क्या कि गंगा काशी के घाट पर आकर पवित्र हो जाए,पहले अपवित्र रही हो? फिर काशी का घाट निकल जाए, फिर आगे अपवित्र हो जाए। सिर्फ बीच में पवित्र हो जाए? गंगा एक सातत्य, कंटीन्युटी है। अगर गंगा काशी के घाट पर पवित्र होगी तो तभी होगी जब पहले भी पवित्र हो। अगर गंगा काशी के घाट पर पवित्र हो गई, तो आगे भी पवित्र रहेगी।

मैंने सुना है, एक आदमी अपनी मृत्युशय्या पर था। अंतिम घड़ी थी उसकी। परिवार के मित्र, परिवार के लोग, पुत्र, पुत्रवधुएं, उसकी पत्नी, सब इकट्ठे थे। संध्या के करीब उसने आंख खोली, सूरज ढल गया था और अभी घर के दीये न जले थे, अंधेरा था, उसने आंख खोली और अपनी पत्नी से पूछाः मेरा बड़ा लड़का कहां है?उसकी पत्नी को बड़ा आनंद हुआ। जीवन में उसने कभी किसी को नहीं पूछा था। जीवन में पैसा और पैसा और पैसा। प्रेम की कभी कोई बात उससे न उठी थी। शायद मृत्यु के क्षण में प्रेम का स्मरण आया है। पत्नी बहुत प्रसन्न थी, उसने कहाः निशिं्चत रहें,आपका बड़ा लड़का बगल में बैठा हुआ है, अंधेरे में आपको दिखता नहीं, बड़ा लड़का मौजूद है, आप निशिं्चत आराम से लेटे रहें। लेकिन उसने पूछा, और उससे छोटा लड़का? पत्नी तो बहुत अनुगृहीत हो आई। कभी उसने पूछा नहीं था। जो पैसे के पीछे है,जो महत्वाकांक्षी है उसके जीवन में प्रेम की कभी भी कोई सुगंध नहीं होती, हो भी नहीं सकती। उसने कभी न पूछा था, कौन कहां है! उसे फुर्सत कहां थी! पत्नी ने कहाः छोटा लड़का भी मौजूद है। उसने पूछाः और उससे छोटा? पांच उसके लड़के थे। अंतिम पांचवां? उसकी पत्नी ने कहाः वह भी आपके पैरों के पास बैठा है। सब मौजूद हैं, आप निश्चिंत सो रहें। वह आदमी उठ कर बैठ गया,उसने कहाः इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?

वह पांच लड़कों की फिकर में नहीं था। पत्नी भूल में थी। जीवन भर जिसके मन में पैसा रहा हो, अंतिम क्षण में प्रेम आ सकता है?पत्नी गलत थी, भूल हो गई थी। वह इस चिंता में था कि दुकान पर कोई मौजूद है या कि सब यहीं बैठे हुए हैं? यह मरते क्षण में भी उसके चित्त में वही धारा चल रही थी जो जीवन भर चली थी। यह स्वाभाविक है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जीवन भर जो चला है वही तो चलेगा। तो इस भूल में कोई न रहे कि मैं थोड़ी देर मंदिर हो आता हूं तो धार्मिक हो जाऊंगा। जिसे धार्मिक होना है उसे अपने चित्त की पूरी धारा को बदलने के लिए तैयार होना होगा। ये धोखा देने के ढंग हैं, ये सब सेल्फ-डिसेप्शन हैं कि हम मंदिर हो आते हैं इसलिए धार्मिक हो गए, अपने को धोखा देने की तरकीबों से यह ज्यादा नहीं है। कि हम चंदन लगाते हैं तो धार्मिक हो गए। कि हम यज्ञोपवीत पहनते हैं तो हम धार्मिक हो गए। हद्द बेवकूफियां हैं। इस तरह कोई धार्मिक हो सकता तो हमने दुनिया को कभी का धार्मिक बना लिया होता। इस तरह कोई न कभी धार्मिक हुआ है और न हो सकता है। लेकिन जो अपने को धार्मिक होने का धोखा देना चाहता हो, इन तरकीबों से बड़ी आसानी से धोखा पैदा हो जाता है।

धार्मिक होना एक अखंड क्रांति है। पूरे जीवन को, चित्त को, टोटल माइंड को, समग्र मन को बदलना होगा। और उस बदलने के सूत्र समझने होंगे। एक-एक क्षण, एक-एक घड़ी सजग होकर मन को बदलने में संलग्न होना होगा। और इसके लिए अलग से समय की कोई भी जरूरत नहीं है।


आप जो भी करते हैं--उठते हैं, बैठते हैं, भोजन करते हैं, नौकरी करते हैं, रास्ते पर चलते हैं, रात सोते हैं, आप जो भी करते हैं,आपका जो भी व्यवहार है, आपका जो भी संबंध है, सारा जीवन एक इंटररिलेशनशिप, एक अंतर्संबंध है। चैबीस घंटे हम कुछ न कुछ कर रहे हैं--धर्म के लिए अलग से समय खोजने की जरूरत नहीं है। यह जो भी आप कर रहे हैं, अगर शांत, जागरूक चित्त से करने लगें तो आपके जीवन में धर्म का आगमन हो जाएगा। आप जो भी कर रहे हैं, अगर शांत, जागरूक हो कर करने लगें तो।

जीवन दर्शन

ओशो

Labels: ,

Osho Philosophy Hindi [ परोपकार भ्रांति ]

एक सम्राट बूढ़ा हुआ। उसके तीन बेटे थे, और बड़ी चिंता में था किसको राज्य  दें !

तीनों ही योग्य और कुशल थे, तीनों ही समान गुणधर्मा थे। इसलिये बड़ी कठनाई हुई।

उसने एक दिन तीनों बेटों को बुलाया और कहा कि पिछले पूरे वर्ष में तुमने जो भी कृत्य महानतम किया हो ........ एक कृत्य जो पूरे वर्ष में महानतम हो वह तुम मुझसे कहो।

बड़े बेटे ने कहा कि गांव का जो सबसे बड़ा धनपति है, वह तीर्थयात्रा पर जा रहा था, उसने करोड़ों रुपये के हीरे जवाहरात बिना गिने, बिना किसी हिसाब किताब के, बिना किसी दस्तखत लिए मेरे पास रख दिये, और कहा जब मैं लौट आऊंगा तीर्थयात्रा से, मुझे वापस लौटा देना।

चाहता मैं तो पूरे भी पा जा सकता था, क्यों कि न कोई लिखा पड़ी थी, न कोई गवाह था। इतना भी मैं करता तो थोड़े-बहुत बहुमूल्य हीरे मैं बचा लेता तो कोई कठनाई न थी।

क्योंकि उस आदमी ने न तो गिने थे, और न कोई संख्या रखी थी। लेकिन मैंने सब जैसी की जैसी थैली वापस लौटा दी।
https://wealthhiwealth.com/ओशो-विचारधारा/

पिता ने कहा- तुमने भला किया। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर तुमने कुछ रख लिए होते, तो तुम्हें  पश्चाताप, ग्लाानि, अपराध का भाव पकड़ता या नहीं ? उस बेटे ने कहा- निश्चित पकड़ता।

 तो बाप ने कहा- इसमें परोपकार कुछ भी न हुआ। तुम सिर्फ अपने पश्चाताप, अपनी पीड़ा से बचने के लिये यह किए हो। इसमें परोपकार क्या हुआ ?

हीरे बचाते तो ग्लानि मन को पीड़ा देती, कांटे की तरह चुभती। उस कांटे से बचने के लिये तुमने हीरे वापस दिये हैं। काम तुमने अच्छा  किया, ठीक है, लेकिन परोपकार कुछ भी न हुआ। उपकार तुमने अपना ही किया है।

दूसरा बेटा थोड़ी चिंता में पड़ा। और उसने कहा- कि मैं राह के किनारे से गुजरता था, और झील में सांझ के वक्त, जबकि वहां कोई भी न था, एक आदमी डूबने लगा।

चाहता तो मैं अपने रास्ते चला जाता, सुना अनसुना कर देता। लेकिन मैंने तत्क्षण छलांग मारी, अपने जीवन को खतरे में डाला और उस आदमी को बाहर निकाला।

बाप ने कहा तुमने ठीक किया। लेकिन अगर तुम चले जाते और न निकालते तो क्या उस आदमी की मृत्यु सदा तुम्हारा पीछा न करती ? तुम अनसुनी कर देते ऊपर से, लेकिन भीतर तो तुम सुन चुके थे उसकी चीत्कार, आवाज .......... कि बचाओ !

क्या सदा-सदा के लिए उसका प्रेत तुम्हारा पीछा न करता ? उसी भय से तुमने छलांग लगाई, अपनी जान को खतरे में डाला। लेकिन परोपकार तुमने कुछ किया हो, इस भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है।

तीसरे बेटे ने कहा कि मैं गुजरता था जंगल से। और एक पहाड़ की कगार पर मैंने एक आदमी को सोया हुआ देखा, जो कि नींद में अगर एक भी करवट ले, तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगा, क्योंकि दूसरी तरफ बहुत गहरी खाई थी। मैं उस आदमी के पास पहुंचा और जब मैंने देखा कि वह कौन है, तो वह मेरा जानी दुश्मन  था।

मैं चुपचाप अपने रास्ते जा सकता था, या अगर मैं अपने घोड़े पर सवार उसके पास से भी गुजरता, तो मेरे बिना कुछ किए, शायद सिर्फ मेरे गुजरने के कारण, वह करवट लेता और खाई में गिर जाता। लेकिन मैं आहिस्ते से जमीन पर सरकता हुआ उसके पास पहुंचा कि कहीं मेरी आहट में वह गिर न जाये।

और यह भी मैं जानता था कि वह आदमी बुरा है, मेरे बचाने पर भी वह मुझे गालियां ही देगा। उसे मैंने हिलाया, आहिस्ते  से जगाया। और वह आदमी गांव में मेरे खिलाफ बोलता फिर रहा है।

क्योंकि वह आदमी कहता है, मैं मरने ही वहां गया था। इस आदमी ने वहां भी मेरा पीछा किया। यह जीने तो देगा ही नहीं, इसने मरने भी न दिया।

पिता ने कहा- तुम तो बेहतर हो, लेकिन परोपकार यह भी नहीं है। क्योंकि ........ क्योंकि तुम अहंकार से फूले नहीं समा रहे हो कि तुमने कुछ बड़ा कार्य कर दिया।

बोलते हो तो तुम्हारी आंखों की चमक और हो जाती है। कहते हो तो तुम्हारा सीना फूल जाता है। और जिस कृत्य  से अहंकार निर्मित होता हो, वह परोपकार न रहा।

बड़े सूक्ष्म मार्ग से तुमने अपने अहंकार को उससे भर लिया। तुम सोच रहे हो, तुम बड़े धार्मिक और परोपकारी हो। तुम इन दो से बेहतर हो। लेकिन मुझे राज्य  के मालिक के लिए किसी चौथे की ही तलाश करनी पड़ेगी।

जब तुम परोपकार करते हो, तब तुम कर नहीं सकते, क्यों कि जिसे अपना ही पता नहीं, वह परोपकार करेगा कैसे ?

तुम  चाहे सोचते होओ कि तुम कर रहे हो – गरीब की सेवा, अस्पताल में बीमार के पैर दबा रहे हो – लेकिन अगर तुम गौर से खोजोगे तो तुम कहीं न कहीं अपने अहंकार को ही भरता हुआ पाओगे।

और अगर तुम्हाररा अहंकार ही सेवा से भरता है, तो सेवा भी शोषण है। आत्मज्ञान के पहले कोई व्यक्ति परोपकारी नहीं हो सकता, क्योंकि स्वयं को जाने बिना इतनी बड़ी क्रांति हो ही नहीं सकती।

शिव सूत्र
ओशो

Labels: ,

Saturday

Osho Philosophy Hindi [Mahatma Budh]

बुद्ध का जन्म हुआ।
पांचवें दिन रिवाज के अनुसार श्रेष्ठतम पंडित इकट्ठे हुए। उन्होंने बुद्ध को नाम दिया–सिद्धार्थ।

सिद्धार्थ का अर्थ होता है: कामना की पूर्ति; आशा की पूर्ति; अर्थ की उपलब्धि; मंजिल का मिल जाना। बूढ़े शुद्धोधन के घर में बेटा पैदा हुआ था। जीवन भर प्रतीक्षा की थी, आशा की थी, सपने देखे थे; बहुत बार निराश हुआ था; और अब बुढ़ापे में बेटा पैदा हुआ था; निश्चित ही सिद्धार्थ था। पंडितों ने नाम ठीक ही दिया था। आठ बड़े पंडित थे।

सम्राट पूछने लगा, इस नवजात शिशु का भविष्य भी कहोगे? सात पंडितों ने अपने हाथ उठाए और दो अंगुलियों का इशारा किया। सम्राट कुछ समझा नहीं। उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। इशारे में नहीं, स्पष्ट कहो। तो उन सात पंडितों ने कहा कि दो विकल्प हैं–या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा और या सब छोड़ कर सर्वत्यागी, वीतरागी, संन्यस्त हो जाएगा; या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा और या सर्व वीतरागी संन्यासी होगा।

सिर्फ एक पंडित चुप रहा। वह सबसे युवा था। कोदन्ना उसका नाम था। लेकिन वह सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली भी था। सम्राट ने पूछा, तुम चुप हो, तुमने दो अंगुलियां न उठाईं!

कोदन्ना ने कहा, *दो अंगुलियां तो सभी के जन्म के साथ उठाई जा सकती हैं, क्योंकि दोनों विकल्प सभी के सामने होते हैं–या तो संसार की दौड़ का, या संन्यास का। संन्यास या संसार–ये तो दो विकल्प सभी के सामने होते हैं। इन पंडितों ने कुछ विशेष नहीं किया अगर बुद्ध के लिए दो अंगुलियां उठाईं; मैं एक अंगुली उठाता हूं: यह संन्यासी होगा।*

लेकिन आदमी का अभागा मन, शुद्धोधन रोने लगा। यह कोदन्ना सर्वज्ञात ज्योतिषी है; युवा है, पर महातेजस्वी है; और उसके वचन कभी खाली नहीं गए। दूसरे पंडितों के साथ तो सुविधा थी थोड़ी कि चक्रवर्ती भी बन सकता है, कोदन्ना ने तो विकल्प ही तोड़ दिया। उसने तो कहा, यह निश्चित बुद्ध बनेगा। उन पंडितों के साथ तो सम्राट रोया न था, प्रसन्न हुआ था–चक्रवर्ती सम्राट होगा बेटा। और दूसरे विकल्प को उसने कोई मूल्य न दिया था, क्योंकि जब चक्रवर्ती सम्राट होने का विकल्प हो तो कौन संन्यासी होना चाहता है!

लेकिन कोदन्ना ने तो मार्ग तोड़ दिया, उसने तो एक ही अंगुली उठाई है। लेकिन सम्राट ने अपने मन को समझाया, कोदन्ना अकेला है, विपरीत सात ज्योतिषी हैं। ऐसे ही तो आदमी अपने मन को सांत्वना देता है। सात ही ठीक होंगे, एक ठीक न होगा। लेकिन वह एक ही ठीक सिद्ध हुआ। और अच्छा हुआ कि वह एक ही ठीक सिद्ध हुआ।

*तुम्हारे जन्म के समय भी*, जन्म के बाद भी–चाहे पंडित बुलाए गए हों, न बुलाए गए हों–
*प्रकृति दो अंगुलियां उठाती है।*
सारी प्रकृति दो विकल्प सामने रखती है– *या तो खो जाना मूर्च्छा में, या जाग जाना होश में; या तो बाहर की संपदा को जुटाना, चक्रवर्ती होने की दौड़ में लगना; या भीतर की संपदा को जुटाना, आत्मवान होने में थिर होना।*

*कोदन्ना की एक अंगुली याद रखना! कोई कोदन्ना तुम्हें न मिलेगा अंगुली उठाने को, तुम्हें ही अपनी अंगुली उठानी पड़ेगी।*

ओशो.....♡

Labels: ,

Osho Philosophy Hindi [काम ऊर्जा समाधान: ओशो]


प्रश्न—मेरे बदन में बहुत काम-ऊर्जा है। जब मैं नाचती हूं, कभी-कभी में महसूस करती हूं कि मैं पूरी दुनिया को खत्‍म कर दूंगी और किसी स्‍थिति में इतना क्रोध और हिंसा मेरे भीतर उबलती है कि मैं अपनी ऊर्जा को ध्‍यान की तरफ नहीं ले जाती पाती हूं, यह मुझे पागल कर देती है। मैं काम-वासना में नहीं जाना चाहती हूं परंतु हिंसक ऊर्जा ज्‍वालामुखी की तरह जल रही है। मेरे लिए यह बर्दाश्‍त के बाहर है और यह मुझे आत्‍महत्‍या करने जैसा लगता है। कृपया कर मुझे समझाए कि कैसे मैं अपनी ऊर्जा को सृजनात्‍मकता दूँ।

ओशो—यह समस्‍या मन की बनाई हुई है। न कि ऊर्जा की। अपनी ऊर्जा की सुनो। यह सही दिशा दिखा रही है। यह काम-ऊर्जा नहीं है जो समस्‍या पैदा कर रही है। यह कभी जानवरों में, वृक्षों में, पक्षियों में किसी तरह की समस्‍या पैदा नहीं करती। ऊर्जा समस्‍या पैदा करती है क्‍योंकि तुम्‍हारे मन का ढंग गलत है।

यह प्रश्‍न भारतीय स्‍त्री का है। भारत में सारा पालन-पोषण काम के विरोध में है। तब तुम समस्‍या पैदा करते हो। और तब, जहां कहीं ऊर्जा होगी तुम काम-वासना महसूस करोगे क्‍योंकि कुछ तुम्‍हारे भीतर अधूरा है। जो कुछ भी अधूरा है वह इंतजार करेगा और वह ऊर्जा को प्रभावित करेगा, ऊर्जा को शोषण करेगा।

सक्रिय ध्‍यान की विधियों में बहुत ऊर्जा पैदा होती है। कई छुपे हुए स्‍त्रोत खुलते है और नये स्‍त्रोत उपलब्‍ध होते है। यदि काम अतृप्‍त रह जाता है तो सारी ऊर्जा काम की तरफ बहने लगती है। यदि तुम ध्‍यान करोगे तो ज्‍यादा से ज्‍यादा कामुक महसूस करोगे।

भारत में एक घटना घटी है। काम-ऊर्जा के कार जैन साधुओं ने ध्‍यान करना एकदम बंद कर दिया। वे ध्‍यान को पूरी तरह से भूल चुके है। क्‍योंकि वे काम का इतना दमन कर रहे थे कि जब भी वे ध्‍यान करते, ऊर्जा पैदा होती। ध्‍यान तुम्‍हें बहुत ऊर्जा देता है। यह अनंत की ऊर्जा को स्‍त्रोत है, तुम इसे खतम नहीं कर सकते। तो जब भी ऊर्जा पैदा होती वे कामुक महसूस करते। वे ध्‍यान से डरने लगे। उन्‍होंने उसे छोड़ दिया। बहुत महत्‍वपूर्ण बात जो महावीर ने उन्‍हें दी, उसे उन्‍होंने छोड़ दिया, और गैर महत्‍व की चीजें—व्रत-उपवास और रीतियां—वे जारी रखे हुए है। वे काम के विपरीत जीने के ढंग से मेल खाती है।

मैं काम के खिलाफ नहीं हूं क्‍योंकि मैं जीवन के खिलाफ नहीं हूं। अंत: समस्‍या वहां नहीं है जहां तुम सोच रहे हो, समस्‍या तुम्‍हारे मन में है। न कि तुम्‍हारी काम ग्रंथि में। तुम्‍हें अपना ढंग बदलना होगा। वरना जो भी तुम करोगे ओ वह कामुक हो जायेगा। तुम किसी को देखोगें और तुम्‍हारी आंखें कामुक हो जायेगी। तुम किसी को छूओगे और तुम्‍हारा स्‍पर्श कामुक हो जायेगा। तुम कुछ खाओगे और तुम्‍हारा खाना कामुक हो जायेगा।

जो लोग काम का दमन करते है वे ज्‍यादा खाने लगते है। तुम अपने जीवन में देख सकते हो। सहज, मस्‍त, काम का मजा लेने वाले मोटे नहीं होंगे। वे बहुत ज्‍यादा नहीं खाएंगे। प्रेम इतना संतुष्‍टि दायक है, प्रेम इतना तृप्‍ति दायक है, वे अपने शरीर को भोजन से भरते नहीं जाएंगे। जब वे प्रेम नहीं कर सकते, या स्‍वयं को प्रेम में जाने नहीं देते, वे ज्‍यादा खाना शुरू कर देते है। वह परिपूरक कृत्‍य हो जायेगा।

जाओ और हिंदू साधुओं को देखो। वे मोटे होते जाते है। वे भद्दे हो जाते है। वह दूसरी अति है। एक अति पर जैन साधु है जो खा नहीं सकते क्‍योंकि जैसे वे खाएंगे, भोजन ऊर्जा पैदा करेगा और ऊर्जा तत्‍काल इंतजार करती हुई अतृप्‍त वासनाओं की तरफ बहेगी। पहले वह वहां जाती है जहां अपूर्ण इच्‍छाएं बीच में लटकी है—वह पहले जरूरत है इसलिए ऊर्जा पहले वहां बहती है। शरीर का अपना हिसाब है : जहां कही पहले ऊर्जा की जरूरत है, प्राथमिकता है। एक व्‍यक्‍ति जो काम का विरोध कर रहा है उसका काम पहली प्राथमिकता होगी—काम सूची में प्रथम होगा। और जब कभी ऊर्जा उपल्‍बध होगी तो वह सबसे ज्‍यादा अतृप्‍त इच्‍छा की तरफ बहेगी। इसलिए जैन साधु ठीक से खा नहीं सकते। वे डरे हुए है। और हिंदू साधु बहुत खाते है। समस्‍या एक ही है परंतु वे इसका निदान दो विपरीत ढंगों से करते है।

यदि तुम बहुत ज्‍यादा खाते हो तो तुम खाने से पेट को भरकर, एक निश्‍चित तरह का काम का मजा लेने लगते हो। बहुत ज्‍यादा भोजन आलस्‍य लाता है। और बहुत ज्‍यादा भोजन हमेशा प्रेम का परिपूर्वक है। क्‍योंकि बच्‍चा जिस पहली चीज से संपर्क में आता है। वह है मां का स्‍तन। स्‍तन दुनिया का पहला अनुभव है और स्‍तन बच्‍चे को दो चीजें देता है। प्रेम और भोजन।

इसलिए प्रेम और भोजन बहुत गहरे में एक दूसरे से जुड़े है। जब भी प्रेम का अभाव होगा, तुम्‍हारा बचकाना मन सोचगा, ‘’ज्‍यादा भोजन खाओ, इसे भरों। तुमने कभी ख्‍याल किया है। जब तुम बहुत ज्‍यादा प्रेम में होते हो। तब तुम्‍हारे खाने की इच्‍छा नहीं होती। तुम्‍हें बहुत ज्‍यादा भूख नहीं लगती है। परंतु जब कभी प्रेम नहीं होगा, तुम बहुत ज्‍यादा खाने लगते हो। तुम नहीं जानते कि अब क्‍या करना। प्रेम कुछ निश्‍चित जगह भर रहा था। अब वह जगह खाली है। और भोजन के अलावा कोई और चीज नहीं जानते जिससे इसे भरों। तुम प्रकृति को मना करके, प्रकृति का तिरस्‍कार करके समस्‍या पैदा करते हो।

मैं प्रश्‍न कर्ता को कहना चाहता हूं कि वह ध्‍यान का सवाल नहीं है। तुम्‍हें प्रेम की जरूरत है। तुम्‍हें प्रेमी चाहिए। और तुम्‍हें प्रेम में डूबने की हिम्‍मत की जरूरत है।

प्रेम में डूबना कठिन है—वहां कई छुपे हुए भय है। प्रेम जितना भय पैदा करता है उतना और कुछ नहीं कर सकता। क्‍योंकि जिस क्षण तुम दूसरे की और पहुंचना शुरू करते हो, तुम स्‍वयं से बाहर आते हो। और किसे पता दूसरा तुम्‍हें स्‍वीकार भी सकता है। और तिरस्‍कार भी। भय खाड़ा होता है। तुम हिचकिचाहट महसूस करने लगते हो—आगे बढ़ा जाये या नहीं, दूसरे तक पहुंचा जाये या नहीं। यहीं कारण है कि अतीत की डरपोक पीढ़ियों ने प्रेम की जगह शादी स्‍वीकार कर ली। क्‍योंकि यदि लोग प्रेम के लिए खुले छोड़ दिये गये, बहुत कम लोग प्रेम करने में कामयाब होंगे। अधिकतर प्रेम के बिना मर जाएंगे; वे जियेंगे और बिना प्रेम के जीवन घसीटते रहेंगे।

क्‍योंकि प्रेम खतरनाक है……जिस क्षण तुम किसी दूसरे व्‍यक्‍ति की तरफ बढ़ने लगते हो तुम दूसरी दुनिया के संपर्क में आने लगते हो। कौन जाने, तुम स्‍वीकार होगा या तिरस्‍कार। तुम कैसे जान सकेत हो। कि दूसरा तुम्‍हारी जरूरत और इच्‍छा के लिए हां कहेगा या नहीं। कि दूसरा करूणा पूर्ण, प्रेम पूर्ण होगा। तुम कैसे जान सकते हो। वह तुम्‍हें अस्‍वीकार कर सकता है। हो सकता है, वह ना कहे। तुम कह सकते हो, ‘’मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं, परंतु क्‍या पक्‍का है कि वह भी तुम्‍हारे लिए प्रेम महसूस करे। यह हो सकता है वह तुम्‍हारे लिए न कहे। यह कुछ पक्‍का नहीं है। अस्‍वीकार का भय बहुत तोड़ देने वाला है।

इसलिए चतुर और सयाने लोगों ने तया किया है, कि इस और जाना ही नहीं चाहिए। अपने तक रहो, कम से कम अस्‍वीकार तो नहीं, और तुम अपने अहंकार को सतत फूला सकते हो, कि किसी ने तुम्‍हें कभी अस्‍वीकार नहीं किया, यह अहंकार पूरी तरह से नपुसंक हो और तृप्‍ति दायक न हो तब भी तुम किसी के लिए जरूरत हो; तुम चाहते हो को तुम्‍हें कोई स्‍वीकारे; तुम चाहते हो कि कोई तुम्‍हें प्रेम करे क्‍योंकि मात्र जब कोई दूसरा तुम्‍हें प्रेम करे; तुम अपने को प्रेम करने में समर्थ होओगे, इसके पहले नहीं। जब कोई दूसरा तुम्‍हें स्‍वीकार करता है। तब तुम अपने को स्‍वीकारते हो, इसके पहले नहीं। जब कोई दूसरा तुम्‍हारे साथ खुशी महसूस करने लगता है। इसके पहले नहीं। दूसरा आईना बन जाता है।

प्रत्‍येक रिश्‍ता आईना है। यह तुम्‍हें प्रतिबिंबित करता है। बिना आईने के तुम कैसे अपने को जान सकते हो। कोई और राह नहीं है। दूसरों की आंखें आईने जैसी हो जाती है। और जब कोई तुम्‍हें प्रेम करता है वह आईना तुम्‍हारे प्रति बहुत-बहुत ज्‍यादा प्रेमपूर्ण होगा; तुम्‍हारे साथ बहुत ज्‍यादा खुश: तुम्‍हारे साथ आनंदित उन आनंदित आंखों में तुम प्रतिबिंबित होते हो। और पहली बार एक अलग ही तरीके का स्‍वीकार भाव पैदा होता है।

अन्‍यथा प्रारंभ से ही तुम अस्‍वीकार होते रहे हो। यह गंदे समाज का हिस्‍सा है कि प्रत्‍येक बच्‍चा महसूस करता है कि स्‍वंय के लिए वह स्‍वीकार नहीं है। यदि वह कुछ अच्‍छा करता है—तो निश्‍चित ही मां-बाप को निश्‍चित अच्‍छा लगता है। यदि वह करता है, तो वह स्‍वीकार है। यदि वह कुछ गलत करता है—जो मां-बाप गलत मानते है। वह अस्‍वीकृत है। देर-सवेर बच्‍चा महसूस करने लगता है, मैं अपने लिए स्‍वीकार नहीं हूं। जैसा मैं हूं, सहज परंतु जो मैं करता हूं उसके लिए स्‍वीकृत हूं। मुझे प्रेम नहीं किया जाता परंतु मेरे कृत्‍य को प्रेम किया जाता है। और यह स्‍वयं के लिए गहन अस्‍वीकार पैदा करता है, स्‍वयं के लिए गहन घृणा। वह स्‍वयं से नफरत करने लगता है।

ओशो
Osho book गहरा रहस्य 👇

Labels: ,