बांस की बांसुरी बनती है। और किसी लकड़ी की नहीं बनती। क्यों? क्या बांस कोई आखिरी बात है लकड़ियों में? सुंदर लकड़ियां हैं, बहुमूल्य लकड़ियां हैं। बांस भी कोई बात है? बांस की कोई कीमत है? लेकिन बांसुरी बनती बांस से है। देवदारु से नहीं, चीड़ से नहीं, टीक से नहीं, लेबनान के सीदारों से नहीं; आकाश छूते बड़े—बड़े वृक्ष हैं, उनसे नहीं बनती—बनती है बांस की पोंगरी से। क्या खूबी है बांस की? क्या राज है बांस का?
जो राज बांस का है, वही राज भक्त का है। भक्त बांसुरी बनता है। तपस्वी—त्यागी नहीं बनते। तपस्वी—त्यागी आकाश में उठे लेबनान के दरख्त हैं, लेबनान के सीदार हैं। बड़ी उनकी अकड़ है। बड़ा उनका बल है। दूर जमीन में फैली उनकी जड़ें हैं—तप की, तपश्चर्या की। उनका इतिहास है। भक्त का क्या इतिहास! दीन—हीन! बांस की पोंगरी! मगर भक्त बनता है परमात्मा के गीत का वाहन।
देखो न मीरा को! जैसा मीरा गाई, कौन तपस्वी गाया है? जैसा मीरा गाई है, कौन योगी गाया है? जैसी मीरा नाची, कौन कब नाचा है? मीरा बेजोड़ है। कला क्या है मीरा की? बांस की पोंगरी है।
एक बात जान ली कि मेरे किए कुछ भी न होगा, क्योंकि मैं ही नहीं हूं। कृत्य तो तब उठे जब मेरा होना सिद्ध हो। मेरा होना ही सिद्ध नहीं होता, तो कृत्य कैसे उठेगा? कृत्य जाता है, मैं जाता है, तब कोई बहने लगता है—अज्ञात लोक से कोई उतरने लगता है! कोई किरण आती दूर से! कोई गीत आता दूर से! कोई नृत्य आता दूर से! भर जाता है तुम्हें। आपूर कर जाता है तुम्हें। इतना भर देता है कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगता है। दूसरों को भी मिलने लगता है। बाढ़ आ जाती है।
तुम यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं! असहाय हो, बस असहाय ही रह जाओ। अब करने को मत जोड़ो। करने को जोड़ने का मतलब है कि फिर तुम असहाय न रहे, फिर कुछ करने लगे। बेबस हो, अब बेबस ही हो जाओ। अब इसमें जोड़ो मत कुछ करना। अब पत्थर मत उठाओ, अन्यथा आते कृष्ण रुक जाएंगे, देहली पर रुक जाएंगे।
अब जो प्रभु कराए, उसे होने दो। उससे अन्यथा की चाह भी मत करो, मांग भी मत करो। तब तुम्हें कला आ गई भक्ति की। असहाय अवस्था में पूरी तरह डूब जाना भक्ति का जन्म है।
ओशो : पद घुंघरू बांध - मीरा बाई (18-282)
जो राज बांस का है, वही राज भक्त का है। भक्त बांसुरी बनता है। तपस्वी—त्यागी नहीं बनते। तपस्वी—त्यागी आकाश में उठे लेबनान के दरख्त हैं, लेबनान के सीदार हैं। बड़ी उनकी अकड़ है। बड़ा उनका बल है। दूर जमीन में फैली उनकी जड़ें हैं—तप की, तपश्चर्या की। उनका इतिहास है। भक्त का क्या इतिहास! दीन—हीन! बांस की पोंगरी! मगर भक्त बनता है परमात्मा के गीत का वाहन।
देखो न मीरा को! जैसा मीरा गाई, कौन तपस्वी गाया है? जैसा मीरा गाई है, कौन योगी गाया है? जैसी मीरा नाची, कौन कब नाचा है? मीरा बेजोड़ है। कला क्या है मीरा की? बांस की पोंगरी है।
एक बात जान ली कि मेरे किए कुछ भी न होगा, क्योंकि मैं ही नहीं हूं। कृत्य तो तब उठे जब मेरा होना सिद्ध हो। मेरा होना ही सिद्ध नहीं होता, तो कृत्य कैसे उठेगा? कृत्य जाता है, मैं जाता है, तब कोई बहने लगता है—अज्ञात लोक से कोई उतरने लगता है! कोई किरण आती दूर से! कोई गीत आता दूर से! कोई नृत्य आता दूर से! भर जाता है तुम्हें। आपूर कर जाता है तुम्हें। इतना भर देता है कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगता है। दूसरों को भी मिलने लगता है। बाढ़ आ जाती है।
तुम यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं! असहाय हो, बस असहाय ही रह जाओ। अब करने को मत जोड़ो। करने को जोड़ने का मतलब है कि फिर तुम असहाय न रहे, फिर कुछ करने लगे। बेबस हो, अब बेबस ही हो जाओ। अब इसमें जोड़ो मत कुछ करना। अब पत्थर मत उठाओ, अन्यथा आते कृष्ण रुक जाएंगे, देहली पर रुक जाएंगे।
अब जो प्रभु कराए, उसे होने दो। उससे अन्यथा की चाह भी मत करो, मांग भी मत करो। तब तुम्हें कला आ गई भक्ति की। असहाय अवस्था में पूरी तरह डूब जाना भक्ति का जन्म है।
ओशो : पद घुंघरू बांध - मीरा बाई (18-282)
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