Osho Philosophy Hindi [ परोपकार भ्रांति ]
एक सम्राट बूढ़ा हुआ। उसके तीन बेटे थे, और बड़ी चिंता में था किसको राज्य दें !
तीनों ही योग्य और कुशल थे, तीनों ही समान गुणधर्मा थे। इसलिये बड़ी कठनाई हुई।
उसने एक दिन तीनों बेटों को बुलाया और कहा कि पिछले पूरे वर्ष में तुमने जो भी कृत्य महानतम किया हो ........ एक कृत्य जो पूरे वर्ष में महानतम हो वह तुम मुझसे कहो।
बड़े बेटे ने कहा कि गांव का जो सबसे बड़ा धनपति है, वह तीर्थयात्रा पर जा रहा था, उसने करोड़ों रुपये के हीरे जवाहरात बिना गिने, बिना किसी हिसाब किताब के, बिना किसी दस्तखत लिए मेरे पास रख दिये, और कहा जब मैं लौट आऊंगा तीर्थयात्रा से, मुझे वापस लौटा देना।
चाहता मैं तो पूरे भी पा जा सकता था, क्यों कि न कोई लिखा पड़ी थी, न कोई गवाह था। इतना भी मैं करता तो थोड़े-बहुत बहुमूल्य हीरे मैं बचा लेता तो कोई कठनाई न थी।
क्योंकि उस आदमी ने न तो गिने थे, और न कोई संख्या रखी थी। लेकिन मैंने सब जैसी की जैसी थैली वापस लौटा दी।
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पिता ने कहा- तुमने भला किया। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर तुमने कुछ रख लिए होते, तो तुम्हें पश्चाताप, ग्लाानि, अपराध का भाव पकड़ता या नहीं ? उस बेटे ने कहा- निश्चित पकड़ता।
तो बाप ने कहा- इसमें परोपकार कुछ भी न हुआ। तुम सिर्फ अपने पश्चाताप, अपनी पीड़ा से बचने के लिये यह किए हो। इसमें परोपकार क्या हुआ ?
हीरे बचाते तो ग्लानि मन को पीड़ा देती, कांटे की तरह चुभती। उस कांटे से बचने के लिये तुमने हीरे वापस दिये हैं। काम तुमने अच्छा किया, ठीक है, लेकिन परोपकार कुछ भी न हुआ। उपकार तुमने अपना ही किया है।
दूसरा बेटा थोड़ी चिंता में पड़ा। और उसने कहा- कि मैं राह के किनारे से गुजरता था, और झील में सांझ के वक्त, जबकि वहां कोई भी न था, एक आदमी डूबने लगा।
चाहता तो मैं अपने रास्ते चला जाता, सुना अनसुना कर देता। लेकिन मैंने तत्क्षण छलांग मारी, अपने जीवन को खतरे में डाला और उस आदमी को बाहर निकाला।
बाप ने कहा तुमने ठीक किया। लेकिन अगर तुम चले जाते और न निकालते तो क्या उस आदमी की मृत्यु सदा तुम्हारा पीछा न करती ? तुम अनसुनी कर देते ऊपर से, लेकिन भीतर तो तुम सुन चुके थे उसकी चीत्कार, आवाज .......... कि बचाओ !
क्या सदा-सदा के लिए उसका प्रेत तुम्हारा पीछा न करता ? उसी भय से तुमने छलांग लगाई, अपनी जान को खतरे में डाला। लेकिन परोपकार तुमने कुछ किया हो, इस भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है।
तीसरे बेटे ने कहा कि मैं गुजरता था जंगल से। और एक पहाड़ की कगार पर मैंने एक आदमी को सोया हुआ देखा, जो कि नींद में अगर एक भी करवट ले, तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगा, क्योंकि दूसरी तरफ बहुत गहरी खाई थी। मैं उस आदमी के पास पहुंचा और जब मैंने देखा कि वह कौन है, तो वह मेरा जानी दुश्मन था।
मैं चुपचाप अपने रास्ते जा सकता था, या अगर मैं अपने घोड़े पर सवार उसके पास से भी गुजरता, तो मेरे बिना कुछ किए, शायद सिर्फ मेरे गुजरने के कारण, वह करवट लेता और खाई में गिर जाता। लेकिन मैं आहिस्ते से जमीन पर सरकता हुआ उसके पास पहुंचा कि कहीं मेरी आहट में वह गिर न जाये।
और यह भी मैं जानता था कि वह आदमी बुरा है, मेरे बचाने पर भी वह मुझे गालियां ही देगा। उसे मैंने हिलाया, आहिस्ते से जगाया। और वह आदमी गांव में मेरे खिलाफ बोलता फिर रहा है।
क्योंकि वह आदमी कहता है, मैं मरने ही वहां गया था। इस आदमी ने वहां भी मेरा पीछा किया। यह जीने तो देगा ही नहीं, इसने मरने भी न दिया।
पिता ने कहा- तुम तो बेहतर हो, लेकिन परोपकार यह भी नहीं है। क्योंकि ........ क्योंकि तुम अहंकार से फूले नहीं समा रहे हो कि तुमने कुछ बड़ा कार्य कर दिया।
बोलते हो तो तुम्हारी आंखों की चमक और हो जाती है। कहते हो तो तुम्हारा सीना फूल जाता है। और जिस कृत्य से अहंकार निर्मित होता हो, वह परोपकार न रहा।
बड़े सूक्ष्म मार्ग से तुमने अपने अहंकार को उससे भर लिया। तुम सोच रहे हो, तुम बड़े धार्मिक और परोपकारी हो। तुम इन दो से बेहतर हो। लेकिन मुझे राज्य के मालिक के लिए किसी चौथे की ही तलाश करनी पड़ेगी।
जब तुम परोपकार करते हो, तब तुम कर नहीं सकते, क्यों कि जिसे अपना ही पता नहीं, वह परोपकार करेगा कैसे ?
तुम चाहे सोचते होओ कि तुम कर रहे हो – गरीब की सेवा, अस्पताल में बीमार के पैर दबा रहे हो – लेकिन अगर तुम गौर से खोजोगे तो तुम कहीं न कहीं अपने अहंकार को ही भरता हुआ पाओगे।
और अगर तुम्हाररा अहंकार ही सेवा से भरता है, तो सेवा भी शोषण है। आत्मज्ञान के पहले कोई व्यक्ति परोपकारी नहीं हो सकता, क्योंकि स्वयं को जाने बिना इतनी बड़ी क्रांति हो ही नहीं सकती।
शिव सूत्र
ओशो
पिता ने कहा- तुमने भला किया। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर तुमने कुछ रख लिए होते, तो तुम्हें पश्चाताप, ग्लाानि, अपराध का भाव पकड़ता या नहीं ? उस बेटे ने कहा- निश्चित पकड़ता।
तो बाप ने कहा- इसमें परोपकार कुछ भी न हुआ। तुम सिर्फ अपने पश्चाताप, अपनी पीड़ा से बचने के लिये यह किए हो। इसमें परोपकार क्या हुआ ?
हीरे बचाते तो ग्लानि मन को पीड़ा देती, कांटे की तरह चुभती। उस कांटे से बचने के लिये तुमने हीरे वापस दिये हैं। काम तुमने अच्छा किया, ठीक है, लेकिन परोपकार कुछ भी न हुआ। उपकार तुमने अपना ही किया है।
दूसरा बेटा थोड़ी चिंता में पड़ा। और उसने कहा- कि मैं राह के किनारे से गुजरता था, और झील में सांझ के वक्त, जबकि वहां कोई भी न था, एक आदमी डूबने लगा।
चाहता तो मैं अपने रास्ते चला जाता, सुना अनसुना कर देता। लेकिन मैंने तत्क्षण छलांग मारी, अपने जीवन को खतरे में डाला और उस आदमी को बाहर निकाला।
बाप ने कहा तुमने ठीक किया। लेकिन अगर तुम चले जाते और न निकालते तो क्या उस आदमी की मृत्यु सदा तुम्हारा पीछा न करती ? तुम अनसुनी कर देते ऊपर से, लेकिन भीतर तो तुम सुन चुके थे उसकी चीत्कार, आवाज .......... कि बचाओ !
क्या सदा-सदा के लिए उसका प्रेत तुम्हारा पीछा न करता ? उसी भय से तुमने छलांग लगाई, अपनी जान को खतरे में डाला। लेकिन परोपकार तुमने कुछ किया हो, इस भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है।
तीसरे बेटे ने कहा कि मैं गुजरता था जंगल से। और एक पहाड़ की कगार पर मैंने एक आदमी को सोया हुआ देखा, जो कि नींद में अगर एक भी करवट ले, तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगा, क्योंकि दूसरी तरफ बहुत गहरी खाई थी। मैं उस आदमी के पास पहुंचा और जब मैंने देखा कि वह कौन है, तो वह मेरा जानी दुश्मन था।
मैं चुपचाप अपने रास्ते जा सकता था, या अगर मैं अपने घोड़े पर सवार उसके पास से भी गुजरता, तो मेरे बिना कुछ किए, शायद सिर्फ मेरे गुजरने के कारण, वह करवट लेता और खाई में गिर जाता। लेकिन मैं आहिस्ते से जमीन पर सरकता हुआ उसके पास पहुंचा कि कहीं मेरी आहट में वह गिर न जाये।
और यह भी मैं जानता था कि वह आदमी बुरा है, मेरे बचाने पर भी वह मुझे गालियां ही देगा। उसे मैंने हिलाया, आहिस्ते से जगाया। और वह आदमी गांव में मेरे खिलाफ बोलता फिर रहा है।
क्योंकि वह आदमी कहता है, मैं मरने ही वहां गया था। इस आदमी ने वहां भी मेरा पीछा किया। यह जीने तो देगा ही नहीं, इसने मरने भी न दिया।
पिता ने कहा- तुम तो बेहतर हो, लेकिन परोपकार यह भी नहीं है। क्योंकि ........ क्योंकि तुम अहंकार से फूले नहीं समा रहे हो कि तुमने कुछ बड़ा कार्य कर दिया।
बोलते हो तो तुम्हारी आंखों की चमक और हो जाती है। कहते हो तो तुम्हारा सीना फूल जाता है। और जिस कृत्य से अहंकार निर्मित होता हो, वह परोपकार न रहा।
बड़े सूक्ष्म मार्ग से तुमने अपने अहंकार को उससे भर लिया। तुम सोच रहे हो, तुम बड़े धार्मिक और परोपकारी हो। तुम इन दो से बेहतर हो। लेकिन मुझे राज्य के मालिक के लिए किसी चौथे की ही तलाश करनी पड़ेगी।
जब तुम परोपकार करते हो, तब तुम कर नहीं सकते, क्यों कि जिसे अपना ही पता नहीं, वह परोपकार करेगा कैसे ?
तुम चाहे सोचते होओ कि तुम कर रहे हो – गरीब की सेवा, अस्पताल में बीमार के पैर दबा रहे हो – लेकिन अगर तुम गौर से खोजोगे तो तुम कहीं न कहीं अपने अहंकार को ही भरता हुआ पाओगे।
और अगर तुम्हाररा अहंकार ही सेवा से भरता है, तो सेवा भी शोषण है। आत्मज्ञान के पहले कोई व्यक्ति परोपकारी नहीं हो सकता, क्योंकि स्वयं को जाने बिना इतनी बड़ी क्रांति हो ही नहीं सकती।
शिव सूत्र
ओशो
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