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Saturday

Osho Philosophy Hindi [काम ऊर्जा समाधान: ओशो]


प्रश्न—मेरे बदन में बहुत काम-ऊर्जा है। जब मैं नाचती हूं, कभी-कभी में महसूस करती हूं कि मैं पूरी दुनिया को खत्‍म कर दूंगी और किसी स्‍थिति में इतना क्रोध और हिंसा मेरे भीतर उबलती है कि मैं अपनी ऊर्जा को ध्‍यान की तरफ नहीं ले जाती पाती हूं, यह मुझे पागल कर देती है। मैं काम-वासना में नहीं जाना चाहती हूं परंतु हिंसक ऊर्जा ज्‍वालामुखी की तरह जल रही है। मेरे लिए यह बर्दाश्‍त के बाहर है और यह मुझे आत्‍महत्‍या करने जैसा लगता है। कृपया कर मुझे समझाए कि कैसे मैं अपनी ऊर्जा को सृजनात्‍मकता दूँ।

ओशो—यह समस्‍या मन की बनाई हुई है। न कि ऊर्जा की। अपनी ऊर्जा की सुनो। यह सही दिशा दिखा रही है। यह काम-ऊर्जा नहीं है जो समस्‍या पैदा कर रही है। यह कभी जानवरों में, वृक्षों में, पक्षियों में किसी तरह की समस्‍या पैदा नहीं करती। ऊर्जा समस्‍या पैदा करती है क्‍योंकि तुम्‍हारे मन का ढंग गलत है।

यह प्रश्‍न भारतीय स्‍त्री का है। भारत में सारा पालन-पोषण काम के विरोध में है। तब तुम समस्‍या पैदा करते हो। और तब, जहां कहीं ऊर्जा होगी तुम काम-वासना महसूस करोगे क्‍योंकि कुछ तुम्‍हारे भीतर अधूरा है। जो कुछ भी अधूरा है वह इंतजार करेगा और वह ऊर्जा को प्रभावित करेगा, ऊर्जा को शोषण करेगा।

सक्रिय ध्‍यान की विधियों में बहुत ऊर्जा पैदा होती है। कई छुपे हुए स्‍त्रोत खुलते है और नये स्‍त्रोत उपलब्‍ध होते है। यदि काम अतृप्‍त रह जाता है तो सारी ऊर्जा काम की तरफ बहने लगती है। यदि तुम ध्‍यान करोगे तो ज्‍यादा से ज्‍यादा कामुक महसूस करोगे।

भारत में एक घटना घटी है। काम-ऊर्जा के कार जैन साधुओं ने ध्‍यान करना एकदम बंद कर दिया। वे ध्‍यान को पूरी तरह से भूल चुके है। क्‍योंकि वे काम का इतना दमन कर रहे थे कि जब भी वे ध्‍यान करते, ऊर्जा पैदा होती। ध्‍यान तुम्‍हें बहुत ऊर्जा देता है। यह अनंत की ऊर्जा को स्‍त्रोत है, तुम इसे खतम नहीं कर सकते। तो जब भी ऊर्जा पैदा होती वे कामुक महसूस करते। वे ध्‍यान से डरने लगे। उन्‍होंने उसे छोड़ दिया। बहुत महत्‍वपूर्ण बात जो महावीर ने उन्‍हें दी, उसे उन्‍होंने छोड़ दिया, और गैर महत्‍व की चीजें—व्रत-उपवास और रीतियां—वे जारी रखे हुए है। वे काम के विपरीत जीने के ढंग से मेल खाती है।

मैं काम के खिलाफ नहीं हूं क्‍योंकि मैं जीवन के खिलाफ नहीं हूं। अंत: समस्‍या वहां नहीं है जहां तुम सोच रहे हो, समस्‍या तुम्‍हारे मन में है। न कि तुम्‍हारी काम ग्रंथि में। तुम्‍हें अपना ढंग बदलना होगा। वरना जो भी तुम करोगे ओ वह कामुक हो जायेगा। तुम किसी को देखोगें और तुम्‍हारी आंखें कामुक हो जायेगी। तुम किसी को छूओगे और तुम्‍हारा स्‍पर्श कामुक हो जायेगा। तुम कुछ खाओगे और तुम्‍हारा खाना कामुक हो जायेगा।

जो लोग काम का दमन करते है वे ज्‍यादा खाने लगते है। तुम अपने जीवन में देख सकते हो। सहज, मस्‍त, काम का मजा लेने वाले मोटे नहीं होंगे। वे बहुत ज्‍यादा नहीं खाएंगे। प्रेम इतना संतुष्‍टि दायक है, प्रेम इतना तृप्‍ति दायक है, वे अपने शरीर को भोजन से भरते नहीं जाएंगे। जब वे प्रेम नहीं कर सकते, या स्‍वयं को प्रेम में जाने नहीं देते, वे ज्‍यादा खाना शुरू कर देते है। वह परिपूरक कृत्‍य हो जायेगा।

जाओ और हिंदू साधुओं को देखो। वे मोटे होते जाते है। वे भद्दे हो जाते है। वह दूसरी अति है। एक अति पर जैन साधु है जो खा नहीं सकते क्‍योंकि जैसे वे खाएंगे, भोजन ऊर्जा पैदा करेगा और ऊर्जा तत्‍काल इंतजार करती हुई अतृप्‍त वासनाओं की तरफ बहेगी। पहले वह वहां जाती है जहां अपूर्ण इच्‍छाएं बीच में लटकी है—वह पहले जरूरत है इसलिए ऊर्जा पहले वहां बहती है। शरीर का अपना हिसाब है : जहां कही पहले ऊर्जा की जरूरत है, प्राथमिकता है। एक व्‍यक्‍ति जो काम का विरोध कर रहा है उसका काम पहली प्राथमिकता होगी—काम सूची में प्रथम होगा। और जब कभी ऊर्जा उपल्‍बध होगी तो वह सबसे ज्‍यादा अतृप्‍त इच्‍छा की तरफ बहेगी। इसलिए जैन साधु ठीक से खा नहीं सकते। वे डरे हुए है। और हिंदू साधु बहुत खाते है। समस्‍या एक ही है परंतु वे इसका निदान दो विपरीत ढंगों से करते है।

यदि तुम बहुत ज्‍यादा खाते हो तो तुम खाने से पेट को भरकर, एक निश्‍चित तरह का काम का मजा लेने लगते हो। बहुत ज्‍यादा भोजन आलस्‍य लाता है। और बहुत ज्‍यादा भोजन हमेशा प्रेम का परिपूर्वक है। क्‍योंकि बच्‍चा जिस पहली चीज से संपर्क में आता है। वह है मां का स्‍तन। स्‍तन दुनिया का पहला अनुभव है और स्‍तन बच्‍चे को दो चीजें देता है। प्रेम और भोजन।

इसलिए प्रेम और भोजन बहुत गहरे में एक दूसरे से जुड़े है। जब भी प्रेम का अभाव होगा, तुम्‍हारा बचकाना मन सोचगा, ‘’ज्‍यादा भोजन खाओ, इसे भरों। तुमने कभी ख्‍याल किया है। जब तुम बहुत ज्‍यादा प्रेम में होते हो। तब तुम्‍हारे खाने की इच्‍छा नहीं होती। तुम्‍हें बहुत ज्‍यादा भूख नहीं लगती है। परंतु जब कभी प्रेम नहीं होगा, तुम बहुत ज्‍यादा खाने लगते हो। तुम नहीं जानते कि अब क्‍या करना। प्रेम कुछ निश्‍चित जगह भर रहा था। अब वह जगह खाली है। और भोजन के अलावा कोई और चीज नहीं जानते जिससे इसे भरों। तुम प्रकृति को मना करके, प्रकृति का तिरस्‍कार करके समस्‍या पैदा करते हो।

मैं प्रश्‍न कर्ता को कहना चाहता हूं कि वह ध्‍यान का सवाल नहीं है। तुम्‍हें प्रेम की जरूरत है। तुम्‍हें प्रेमी चाहिए। और तुम्‍हें प्रेम में डूबने की हिम्‍मत की जरूरत है।

प्रेम में डूबना कठिन है—वहां कई छुपे हुए भय है। प्रेम जितना भय पैदा करता है उतना और कुछ नहीं कर सकता। क्‍योंकि जिस क्षण तुम दूसरे की और पहुंचना शुरू करते हो, तुम स्‍वयं से बाहर आते हो। और किसे पता दूसरा तुम्‍हें स्‍वीकार भी सकता है। और तिरस्‍कार भी। भय खाड़ा होता है। तुम हिचकिचाहट महसूस करने लगते हो—आगे बढ़ा जाये या नहीं, दूसरे तक पहुंचा जाये या नहीं। यहीं कारण है कि अतीत की डरपोक पीढ़ियों ने प्रेम की जगह शादी स्‍वीकार कर ली। क्‍योंकि यदि लोग प्रेम के लिए खुले छोड़ दिये गये, बहुत कम लोग प्रेम करने में कामयाब होंगे। अधिकतर प्रेम के बिना मर जाएंगे; वे जियेंगे और बिना प्रेम के जीवन घसीटते रहेंगे।

क्‍योंकि प्रेम खतरनाक है……जिस क्षण तुम किसी दूसरे व्‍यक्‍ति की तरफ बढ़ने लगते हो तुम दूसरी दुनिया के संपर्क में आने लगते हो। कौन जाने, तुम स्‍वीकार होगा या तिरस्‍कार। तुम कैसे जान सकेत हो। कि दूसरा तुम्‍हारी जरूरत और इच्‍छा के लिए हां कहेगा या नहीं। कि दूसरा करूणा पूर्ण, प्रेम पूर्ण होगा। तुम कैसे जान सकते हो। वह तुम्‍हें अस्‍वीकार कर सकता है। हो सकता है, वह ना कहे। तुम कह सकते हो, ‘’मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं, परंतु क्‍या पक्‍का है कि वह भी तुम्‍हारे लिए प्रेम महसूस करे। यह हो सकता है वह तुम्‍हारे लिए न कहे। यह कुछ पक्‍का नहीं है। अस्‍वीकार का भय बहुत तोड़ देने वाला है।

इसलिए चतुर और सयाने लोगों ने तया किया है, कि इस और जाना ही नहीं चाहिए। अपने तक रहो, कम से कम अस्‍वीकार तो नहीं, और तुम अपने अहंकार को सतत फूला सकते हो, कि किसी ने तुम्‍हें कभी अस्‍वीकार नहीं किया, यह अहंकार पूरी तरह से नपुसंक हो और तृप्‍ति दायक न हो तब भी तुम किसी के लिए जरूरत हो; तुम चाहते हो को तुम्‍हें कोई स्‍वीकारे; तुम चाहते हो कि कोई तुम्‍हें प्रेम करे क्‍योंकि मात्र जब कोई दूसरा तुम्‍हें प्रेम करे; तुम अपने को प्रेम करने में समर्थ होओगे, इसके पहले नहीं। जब कोई दूसरा तुम्‍हें स्‍वीकार करता है। तब तुम अपने को स्‍वीकारते हो, इसके पहले नहीं। जब कोई दूसरा तुम्‍हारे साथ खुशी महसूस करने लगता है। इसके पहले नहीं। दूसरा आईना बन जाता है।

प्रत्‍येक रिश्‍ता आईना है। यह तुम्‍हें प्रतिबिंबित करता है। बिना आईने के तुम कैसे अपने को जान सकते हो। कोई और राह नहीं है। दूसरों की आंखें आईने जैसी हो जाती है। और जब कोई तुम्‍हें प्रेम करता है वह आईना तुम्‍हारे प्रति बहुत-बहुत ज्‍यादा प्रेमपूर्ण होगा; तुम्‍हारे साथ बहुत ज्‍यादा खुश: तुम्‍हारे साथ आनंदित उन आनंदित आंखों में तुम प्रतिबिंबित होते हो। और पहली बार एक अलग ही तरीके का स्‍वीकार भाव पैदा होता है।

अन्‍यथा प्रारंभ से ही तुम अस्‍वीकार होते रहे हो। यह गंदे समाज का हिस्‍सा है कि प्रत्‍येक बच्‍चा महसूस करता है कि स्‍वंय के लिए वह स्‍वीकार नहीं है। यदि वह कुछ अच्‍छा करता है—तो निश्‍चित ही मां-बाप को निश्‍चित अच्‍छा लगता है। यदि वह करता है, तो वह स्‍वीकार है। यदि वह कुछ गलत करता है—जो मां-बाप गलत मानते है। वह अस्‍वीकृत है। देर-सवेर बच्‍चा महसूस करने लगता है, मैं अपने लिए स्‍वीकार नहीं हूं। जैसा मैं हूं, सहज परंतु जो मैं करता हूं उसके लिए स्‍वीकृत हूं। मुझे प्रेम नहीं किया जाता परंतु मेरे कृत्‍य को प्रेम किया जाता है। और यह स्‍वयं के लिए गहन अस्‍वीकार पैदा करता है, स्‍वयं के लिए गहन घृणा। वह स्‍वयं से नफरत करने लगता है।

ओशो
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