Osho Philosophy Hindi ('मन' और 'अ-मन' का क्या अर्थ है?)
'मन' और 'अ-मन' का क्या अर्थ है?
जब मन बिलकुल ठहर जाता है तो होता ही नहीं। मन जब तक दौड़ता है तभी तक होता है। सच तो यह है कि दौड़ का नाम मन है। मन दौड़ता है, यह भाषा की गलती है। जब हम कहते हैं, मन दौड़ता है, तो भाषा की गलती हो रही है। यह गलती वैसे ही हो रही है जैसे हम कहते हैं कि बिजली चमकती है। असल में जो चमकती है, उसका नाम बिजली है। बिजली चमकती है, ऐसा दो बातें कहने की कोई जरूरत नहीं है। आपने कभी न चमकने वाली बिजली देखी है? तो फिर बेकार है। असल में जो चमकता है उसका नाम बिजली है। मगर भाषा में दिक्कत होती है। भाषा में हम बिजली को अलग कर लेते हैं और चमकने को अलग कर लेते हैं। फिर हम कहते हैं, देखो, बिजली चमक रही है। कहना चाहिए कि देखो, जो चमक रहा है, इसको हम भाषा में बिजली कहते हैं। चमकना और बिजली एक ही चीज के दो नाम हैं।
ठीक वैसे ही भूल होती है। हम कहते हैं, मन दौड़ता है। असल में, जो दौड़ता है, उसका नाम मन है। दौड़ का नाम मन है। तो ठहरे हुए मन का कोई अर्थ नहीं होता। जैसे कि न चमकने वाली बिजली का कोई मतलब नहीं होता। कोई कहे कि बिजली इस वक्त नहीं चमक रही है, तो आप कहेंगे, है ही नहीं। क्योंकि बिजली नहीं चमक रही है, इसका कोई अर्थ नहीं होता। चमकती है तभी होती है।
मन अगर ठहर जाए, तो नहीं हो जाता है--नो माइंड। ठहरा हुआ मन अ-मन हो जाता है। कबीर ने जिसे अ-मनी अवस्था कहा है। वह ठहर जाता है तो फिर नहीं रह जाता। मन तभी तक है, जब तक दौड़ता है। इसलिए आप मन को कभी भी ठहरा न पाएंगे। ठहर जाएंगे तो पाएंगे मन नहीं है। मन कभी आत्मा को न जान सकेगा। क्योंकि, मैंने कहा, दौड़ से कभी आत्मा जानी न जा सकेगी, और मन दौड़ का ही नाम है। जिस दिन मन नहीं होता, उस दिन आत्मा जानी जाती है। मन से हम सारे जगत को जान लेंगे, सिर्फ एक आत्मतत्व अनजाना रह जाएगा। मन जब नहीं होगा तब हम आत्मतत्व को जान लेंगे।
और मन की दौड़ की अपनी तकनीक, अपनी पूरी टेक्नालाजी है। क्योंकि अकारण तो नहीं दौड़ा जा सकता, इसलिए मन कारण निर्मित करता है। उन कारणों का नाम वासनाएं, डिजायर्स हैं। मन कहता है, वह चीज पानी है। नहीं तो दौड़ेगा कैसे! अगर आगे भविष्य में कुछ पाने को न हो, कोई मंजिल न हो, तो दौड़ेगा कैसे? इसलिए रोज भविष्य में मन मंजिल तय करता है कि वह रही मंजिल, वहां तक पहुंचना है। तब दौड़ शुरू हो जाती है। इसलिए जिस मंजिल पर मन पहुंच जाता है, वह बेकार हो जाती है। क्योंकि वह तो सिर्फ बहाना था दौड़ का। इसलिए जिस मंजिल को मन पा लेता है, वह मंजिल बेकार हो जाती है, क्योंकि वह तो सिर्फ बहाना था। तब दूसरा बहाना निर्मित करता है कि ठीक है, यह तो पा लिया, अब इसमें कुछ सार नहीं। अब रही मंजिल वह-और आगे।
इसलिए मन सदा भविष्य में जीता है, वह कभी वर्तमान में नहीं हो सकता। जिसे दौड़ना है उसे भविष्य में ही जीना होगा। वह सदा आगे ही होगा। वह वहां नहीं होगा, जहां आप हैं। अगर वहीं होगा तो दौड़ बंद हो जाएगी। और आत्मा वहां है, जहां आप हैं। और मन वहां है, जहां आप कभी नहीं होते-सदा आगे, आलवेज इन दि फ्यूचर। और जहां पहुंच जाता है, वहीं से कह देता है, बेकार है। ठीक है, आगे चलो।
तो मन मील के उस पत्थर की तरह है जिस पर तीर हमेशा आगे बताता रहता है। लेकिन मील के पत्थर पर तो कहीं-कहीं शून्य का पत्थर भी आ जाता है। शून्य के पत्थर पर तीर नहीं होता।
मन की जो आखिरी तरकीब है, जब संसार की सब चीजें चुक जाती हैं और मन ऊबने लगता है; कहता है, धन भी पाया बहुत, लेकिन कुछ मिला नहीं; मकान बनाए बहुत, कुछ मिला नहीं; शरीर खरीदे बहुत, कुछ मिला नहीं; तब वह परलोक, स्वर्ग, मोक्ष, परमात्मा, इनके तीर बनाने शुरू कर देता है। वह कहता है, इनको पा लो। अब धन तो नहीं पाया, छोड़ो, अब धर्म पा लें। लेकिन पाएं जरूर! कुछ पाते जरूर रहें! बिकमिंग जारी रहे। कुछ पाने की यात्रा जारी रहे तो मन फिर जारी रहेगा।
ध्यान रहे, धार्मिक आदमी वह नहीं है जो परमात्मा को पाना चाहता है। क्योंकि जब तक कोई कुछ भी पाना चाहता है, तब तक मन जारी रहेगा। धार्मिक आदमी वह है, जो इस सत्य को पहचान गया है कि पाने की दौड़ ही मन है, इसलिए अब हम नहीं पाते। अब हम न पाने को खड़े हो जाते हैं। अब परमात्मा भी हमसे कहे कि दो कदम चलकर आ जाओ, मैं यहां हूं, तो अब हम जाते नहीं। अब हम शून्य के पत्थर पर खड़े हो गए। अब हमारी कोई यात्रा नहीं।
ओशो: ईशावास्य उपनिषद, #4
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